असम के वैष्णव जीवन में शंकरदेव और Great lord Madhavadev धर्म गुरुद्वय अभिन्न तो माने जाते ही हैं, साथ ही यह भी प्रतिपादित किया जाता है कि शंकरदेव ने भक्ति प्रकाशित भर की थी, सामान्य जनता में उसे प्रचारित किया माधवदेव ने।
माधवदेव की प्रतिभा से चमत्कृत शंकरदेव ने समझ लिया कि Great lord Madhavadev के कारण वैष्णव धर्म भविष्य के लिए भी सुरक्षित है। माधवदेव ने गुरु-सेवा और ईश्वर-सेवा में कभी भेद नहीं माना। माधवदेव को पाकर शंकरदेव वैसे ही धन्य हुए, जैसे विवेकानन्द को पाकर रामकृष्ण परमहंस।
सन् 1546 के आसपास Great lord Madhavadev, Great lord Shankardevके साथ ही धुवाहाट आहोम राज्य से कामरूप कोचराज्य चले आए, एवं गणककुची में बस गए। वहां वे प्राय: २२ वर्षों 1568 तक रहे। वहीं रहते समय उन्होंने सन 1550 में शंकरदेव के साथ जगन्नाथपुरी की यात्रा की।
सन 1568 में पाटवाउंसी से कोचविहार जाते समय Great lord Madhavadev को शंकरदेव ने अपना उत्तराधिकारी बनाया। शंकरदेव के महाप्रयाण के बाद सन 1568 से 1596 तक धर्मप्राचार का गुरुभार संभालकर, माधवदेव ने असम के विभिन्न स्थानों में धर्म-प्रचार किया। कोचविहार में ही सन 1596 में गुर्दे की बीमारी से माधवदेव का महाप्रयाण हुआ।
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