अंतिम किस्त- एक समर्पित क्रांतिकारी-सूर्य सेन
हालांकि उन्हें सलाखों के पीछे कड़ी निगरानी में रखा गया था, इसके बावजूद प्रीतिलता ने बहादुरी दिखाते हुए अपने काम को अंजाम दिया।
1923 तक सूर्यसेन ने अपने क्षेत्रीय संगठन युगांतर की शाखाएं चटगांव के सभी जिलों में स्थापित कर दीं, यह जानते हुए भी कि उनके पास बहुत कम संसाधन हैं, उन्होंने औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ गोपनीय रूप से गुरिल्ला युद्ध की योजना बनाई।
इससे पहले वह चटगांव में बंगाल-आसाम रेलवे ऑफिस से दिनदहाड़े खजाना लूट चुके थे। इसके लिए 1926 में उन्हें बिना अभियोग के गिरफ्तार किया गया, बाद में 1928 में उन्हें छोड़ दिया गया।
सूर्यसेन ने एक साजिश रची जिसके तहत चटगांव के तमाम सरकारी दफ्तरों को ध्वस्त करना, सरकारी शस्त्रागारों पर कब्जा करना, टेलीफोन-टेलीग्राफ कार्यालय ध्वस्त करना तथा यूरोपियन क्लब के सभी सदस्यों का कत्ल करना शामिल था।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए 18 अप्रैल 1930 का दिन तय किया गया। निर्मल सेन और लोकनाथ बाउल के नेतृत्व में आर्मी क्वाटर, गणेश घोष और अनंत सिंह के नेतृत्व में पुलिस लाइन, और नरेश चंद्र रे को एक यूरोपियन के खात्मे की जिम्मेदारी सौंपी गई।
अंबिका चक्रवर्ती के साथ काम कर रहे युवकों को टेलीफोन और टेलीग्राफ को ध्वस्त करने की जिम्मेदारी दी गई। एक दिन पहले 8 युवकों को रेलवे लाइन को ध्वस्त करने के लिए धूम और लंगनघाट स्टेशन के पास भेजा गया था, ताकि चटगांव का संपर्क देश के बाकी हिस्सों से कट जाए और सैन्य सहायता न पहुंच सके।
बंदरगाहों पर खड़े जहाज का वायरलेस तंत्र भ्रष्ट कर दिया गया।
योजना के मुताबिक 18 अप्रैल 1930 को टेलीफोन पर हमला किया गया। वहां काम कर रहे कर्मचारियों को बंदूक की नोक पर रख स्वीचबोर्ड के टुकड़े कर दिए गए।
अगले 3 मिनट के अंदर ही पूरी इमारत ध्वस्त कर दी गई। यही हाल टेलीग्राफ कार्यालय का भी हुआ। फिर बारी आई शस्त्रागार की। गणेश घोष और अनंत सिंह के नेतृत्व में पुलिस लाइन पर हमला किया गया।
इससे पहले कि दरबान और पुलिसकर्मी कुछ समझ पाते, क्रांतिकारियों ने गोलीबारी शुरू कर दी।
फिर ऐसी भगदड़ मची की सभी पुलिसवाले अपनी जान बचाने के लिए भागते नजर आए। कुछ ही मिनट में पुलिस लाइन पर कब्जा कर असलहे लूट लिए गए।
क्रांतिकारी सूर्यसेन के आदेश का पालन करते हुए ब्रिटिश सरकार के झंडे को सरेआम जलाकर भारतीय झंडे को वंदे मातरम और इंकलाब जिंदाबाद की गूंज के बीच लहराने लगे।
इसके बाद सफेद खादी पहने सूर्यसेन ने क्षेत्रीय क्रांतिकारी गणतांत्रिक सरकार की घोषणा की। गुरिल्ला क्रांतिकारियों ने जगह-जगह ब्रिटिश सेना को पराजित कर चटगांव के बाहर खदेड़ दिया।
22 अप्रैल 1930 को क्रांतिकारियों के छिपने की जगह, जलालाबाद पहाड़ी को अंग्रेज सेना ने घेर लिया। इसके बाद यहां वीरता की मिसाल कायम करने वाली लड़ाई की शुरुआत हुई।
एक तरफ पुलिस के लूटे हुए हथियारों के साथ क्रांतिकारी युवक थे, तो दूसरी तरफ बेहतर प्रशिक्षित तथा उम्दा हथियारों से लैस ब्रिटिश सेना।
सूर्यसेन ने जल्द ही समझ लिया कि औपनिवेशिक सत्ता से जमीनी लड़ाई में पार पाना मुश्किल है। इसलिए उन्होंने गुरिल्ला लड़ाई लड़ने का फैसला किया।
सूर्यसेन चटगांव के बाहरी क्षेत्र, जलालाबाद पहाड़ी में एक विधवा सावित्री देवी के यहां अस्थाई तौर पर छुपे हुए थे। 13 जून 1932 को प्रीतिलता मास्टर दा से मिलने आई।
दुर्भाग्यवश, पुलिस भी उन्हें खोजते हुए वहां पहुंच गई। कैप्टन कैमरून के नेतृत्व में पुलिस और सेना ने उस घर को घेर लिया। छोटी सी झड़प में कुछ क्रांतिकारी शहीद हुए तथा कैप्टन कैमरून भी मारा गया। सूर्यसेन, प्रीतिलता तथा कल्पना दत्ता वहां से बच निकलने में कामयाब रहे।
इसके बाद सूर्यसेन ने पहड़तली यूरोपियन क्लब पर हमला करने की योजना बनाई। इस क्लब में घृणास्पद बोर्ड लगाया था जिस पर लिखा था, कुत्ते और भारतीयों का प्रवेश निषेध है।
क्लब पर हमला करने की जिम्मेदारी प्रीतिलता को दी गई तथा इसके लिए 23 सितंबर 1932 का दिन तय किया गया।
क्रांतिकारी दल के सदस्यों को साथ में पोटेशियम साइनाइट रखने का निर्देश था, ताकि पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने की स्थिति में उसे खाया जा सके।
हालांकि हमला सफल रहा, मगर प्रीतिलता उस दुर्भाग्यशाली रात को जाल में फंस गई और उन्होंने औपनिवेशिक शक्तियों के हाथ लगने से बेहतर साइनाइट खाना समझा।
इस तरह प्रीतिलता ने देश के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर खुद को महान स्वतंत्रता सेनानियों की पंक्ति में खड़ा कर लिया। तब उनकी उम्र महज 21 वर्ष थी। उनकी शहादत ने भारत, खासकर बंगाल में क्रांतिकारी भावना का उफान ला दिया।
अंग्रेजों ने सूर्यसेन पर 10,000 रूपये का ईनाम रख दिया। उन्हें बहुत दिन तक इंतजार भी नहीं करना पड़ा। नेत्र सेन नामक एक गद्दार ने सूर्यसेन के साथ धोखा कर ही दिया। उसने अंग्रेजों को बता दिया कि सूर्यसेन चटगांव के गैराला गांव में छिपे हैं।
सुबह—सुबह गोरखा सैनिकों की पूरी टुकड़ी ने गांव को घेर लिया। घेराबन्दी तोड़ निकलने के प्रयास में सूर्यसेन गिरफ्तार कर लिये गये।
युगांतर पार्टी की चटगांव शाखा के नये अध्यक्ष तारकेश्वर दास्तेदार ने चटगांव जेल से सूर्यसेन को निकालने की योजना बनाई। इसकी सूचना भी अंग्रेजों को मिल गई और तारकेश्वर तथा कल्पना दत्ता गिरफ्तार कर लिए गए।
1933 में विशेष न्यायाधिकरण में सूर्यसेन, तारकेश्वर दास्तेदार तथा कल्पना दत्ता की सुनवाई हुई।
आजादी के आंदोलन के नायक सूर्यसेन को अगस्त 1933 में फांसी की सजा सुनाई गई। 12 जनवरी, 1934 को उन्हें चटगांव जेल में फांसी दे दी गई। उनकी फांसी के समय जेल के अन्य कैदी देशभक्ति के गीत गा रहे थे।
सूर्यसेन की शहादत के दिन ही उस गद्दार की भी दिन—दहाड़े हत्या कर दी गई, जिसने सूर्यसेन के छिपने का ठिकाना अंग्रेजों को बताया था।
क्रान्तिकारी आंदोलन के सूर्यसेन के नेतृत्व वाले चरण की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि बड़ी संख्या में युवतियां आजादी के आंदोलन में कूद पड़ीं।
इन महिलाओं ने क्रान्तिकारियों को छुपने की जगह देने, सूचना पहुंंचाने से लेकर, हथियार लेकर लड़ने तक का कार्य किया। सूर्यसेन ने महिलाओं के दिल में देश प्रेम की अलख जगा दी। परिणामस्वरूप वे आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने लगीं।
प्रीतिलता वड्डेकर एक मिशन के संचालन के दौरान शहीद हो गई। वहीं कल्पना दत्ता को गिरफ्तार कर सूर्यसेन के साथ ही मामला चलाया गया तथ उम्रकैद की सजा दी गई।
दिसम्बर 1931 में बंगाल के कुमिल्ल की दो स्कूली छात्रा-शांति घोष और सुनीति चौधरी ने जिला जज की गोली मारकर हत्या कर दी। दिसम्बर 1932 में एक समारोह में अपनी डिग्री लेने के दौरान बीना दास ने राज्यपाल पर गोली चला दी।
नगालैण्ड में 1932 में एक 13 वर्ष की बच्ची रानी गैदीलिता ने अंग्रेजों के खिलाफ झंडा उठा लिया जिसे उम्रकैद की सजा दी गई। यह सूर्यसेन के समर्पण और सांगठनिक योग्यता का ही कमाल था सब के लिए एक और एक के लिए सब।
मूलत: यह ऐसा अनोखा संगठन था जो स्थानीय सरकार के समांनान्तर कार्य कर रहा था।