फ्लैश न्यूजवन्दे मातरम

राजर्षि भाग्यचन्द्रसिंह- पार्ट-1

सन् 1759-1798 ई.
मणिपुर के महाराजा ग़रीबनवाज़ के पुत्र श्याम सिंह के दो पुत्र थे-गौरशाह और चिंथंखोम्बा। गौड़ीय सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात चिंथंखोम्बा श्री राम नारायण शिरोमणी के साथ मणिपुर लौटे थे। उन्होने शिरोमणि जी के साथ पांच मन का एक घंटा बनवाकर ढाका-दक्षिण सिलहट या श्री हट्ट के श्री मंदिर के लिए भेजा था।
चिंथंखोम्बा सन 1753 ई. में 1764 ई. तक अपने ज्येष्ठ भ्राता ग़ौरशाह के साथ संयुक्त राजा बने? किन्तु सन 1764 ई. में पूर्ण रूप से राजा बनकर मणिपुर के राजसिंहासन पर आसीन हुए। संयोगवश इसके पश्चात भी वे मणिपुर पर निरंतर शासन नहीं कर सके। सन् 1764 से 93 ई. के बीच उन्होंने तीन बार सत्ता कोई और पुनः प्राप्त की।
सन 1763 ई. से 76 ई. के मध्य म्यांमार के राजा ने मणिपुर पर आक्रमण किया और चिंथंखोम्बा महाराज को भाग कर कछार में शरण लेनी पड़ी। वहाँ से वे असम के महाराजा स्वर्गदेव राजेश्वर सिंह से जाकर मिले।
राजा राजेश्वर सिंह ने मणिपुर के महाराज चिंथंखोम्बा का स्वागत किया और उन्होंने उन्हें राजकीय आतिथ्य प्रदान किया। म्यांमार के राजा द्वारा मणिपुर के सिंहासन पर नाम मात्र का एक राजा बिठाया गया, जो म्यांमार के राजा के हाथ की कठपुतली मात्र था। उसने चिंथंखोम्बा के विरुद्ध षणयंत्र किया और राजेश्वर सिंह के पास एक पत्र भेजा के चिंथंखोम्बा नामक महाराज बनकर जो व्यक्ति आपके यहां ठहरा हुआ है, नकली है।
यह पत्र स्वर्गदेव को उस समय मिला था जब वह चिंथंखोम्बा से विचार विमर्श करके उन्हें मणिपुर का राज सिंहासन पुनः दिलवाने की योजना को अंतिम रूप दे रहे थे। चिंथंखोम्बा के असम की राजधानी पहुँचने से पूर्व ही स्वर्गदेव ने उनकी भक्ति और आध्यात्मिक शक्तियों की कहानी सुन रखी थी।
अतः स्वर्गदेव ने महाराज चिंथंखोम्बा की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उनसे कहा गया कि तुम्हें एक पागल हाथी के सामने छोड़ा जाएगा, यदि तुम वास्तविक चिंथंखोम्बा हो तो तुम मत्त हाथी को वश में कर लोगे, नहीं तो हाथी तुम्हें मार डालेगा। महाराजा चिंथंखोम्बा मानो इस परीक्षा के लिए तैयार ही थे।
उन्होंने रात को श्री गोविंद जी की आराधना की। अर्धरात्रि को महाराज जी को नींद आ गई। नींद में श्री गोविंदजी ने उनको दर्शन दिए तथा हाथी से रक्षा करने का वचन दिया। उन्हें खोये हुए राज्य की पुनः प्राप्ति का वरदान भी दिया। किंतु उन्हें आदेश दिया कि जब तुम पुनः सिंघासनारूढ़ होओगे तो तुम्हें कैना स्थान से कटहल का वृक्ष कटवाकर मेरा विगृह बनाना होगा तथा अपनी राजधानी में मंदिर बनवाकर उसमें उस विग्रह की प्रतिष्ठा करनी होगी।
विग्रह प्रतिष्ठा के बाद एक रासमंडल बनाकर उसमें मेरी मूर्ति रखकर उसमें रासलीला का आयोजन भी करना होगा। दूसरे दिन प्रातःकाल चिंथंखोम्बा महाराज निडर होकर परीक्षा-स्थल पर मत्त गज के सम्मुख बढ़ने लगे। राजेश्वर सिंह एवं असम की प्रजा दांतों तले अंगुली दबाए यह दृश्य देख रही थी।
उन्मत्त गज की ओर चिंथंखोम्बा एक हाथ में पुष्पाहार और दूसरे हाथ में जपमाला लिए आगे बढ़ रहे थे। एक बार मत्त गयंद राजा की ओर लपका और लोगों ने सोचा कि अब तो महाराज को गज् कुचल देगा। किन्तु ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि हाथी पर भगवान श्रीकृष्ण कुशल महावत के रूप में सवार थे। उन्होंने हाथी को दूसरी ओर मोड़ लिया।
अब आगे दूसरे पार्ट में….

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