झाड़ू फेरने की कला-पार्ट-1
इस धरती पर कहीं वर्धमान नाम का एक नगर था। उसी नगर में दंतिल नाम का एक बहुत बड़ा ठठेरा भी रहता था। बर्तनों का उसका कारोबार इतना बड़ा था कि वह नगर के सभी बनियों का प्रधान भी था। वह नगरपालिका का काम तो देखता ही था, राजा के कामकाज भी संभालता रहता था। इससे नगर के लोग तो उससे पूरी तरह संतुष्ट थे ही राजा भी पूरी तरह संतुष्ट था।
अधिक क्या कहें, उस जैसा चतुर न तो कभी हुआ, न सुनने में आया। परंतु यह जो कहा जाता है कि राजा का भला चाहने वाले से लोग द्वेष करने लगते हैं और जनता के हित का ध्यान रखने वालों को राजा छोड़ देता है, वह ग़लत नहीं है। जो एक का हित वह दूसरे का अहित। इसलिए ऐसा कोई विरला ही होगा जो राजा और जनता दोनों का भला एक साथ कर सके। दंतिल ऐसे दुर्लभ लोगों में था।
इस तरह दंतिल का समय बड़े आराम से कटता रहा। फिर दंतिल की कन्या के विवाह का अवसर आया। इस अवसर पर उसने नगरवासियों और राजा के सेवकों और अधिकारियों को न्यौता दिया, उन्हें प्रेम से भोजन कराया और चलते समय भरपूर विदाई दी। विवाह के बाद उसने राजा को उनके अंतःपुर की रानियों के साथ अपने घर बुलाया और उनकी ख़ूब आवभगत भी की। उससे बस थोड़ी सी चूक हो गई।
हुआ यह कि राजा की यहां गौडम नाम का झाड़ू लगाने वाला एक नौकर था। उसने बुलाया तो उसे भी था, पर वह वहाँ आकर एक ऊँचे आसन पर बैठ गया, जहाँ उसे बैठना नहीं चाहिए था। इस पर नाराज़ होकर उसने उसे धक्का देकर बाहर निकाल दिया।
वह बदले की आग से इस तरह सुलगता रहा की रात को उसे नींद तक ना आई। वह लगातार एक ही बात सोचता रहा कि दंतिल को किस जुगत से मजा चखाया जाए। झाड़ूबरदार ही सही पर वह था तो राजभवन का झाड़ूबरदार। उसकी अपनी एक इज्जत थी जो दंतिल के घमंड के कारण धूल में मिल गई थी।
वह अपने को धिक्कारता रहा, यदि मैंने दंतिल का दिमाग़ ठिकाने न लगाया तो मेरा जीना व्यर्थ है। पर उसे कोई उपाय सूझ नहीं रहा था। अंत में वह कुछ निराश सा होकर सोचने लगा कि वह बेकार ही चिंता में अपना खून जला रहा है। उसके किए दंतिल का बुरा तो होने से रहा।
वह था तो मूर्ख, पर इस समय उसे भी एक सूक्ति याद आ रही थी जो व्यक्ति किसी का कुछ बना-बिगाड़ न सकता हो, वह निर्लज्ज किसी पर क्रोध क्यों करता है। अकेला चना कितना भी उछले क्या वह भाड़ फोड़ सकता है।