लेकिन कोचराजा की कोचदृष्टि के कारण उनको पहले हाजो और बाद को कोचविहार में रहना पड़ा। कोचविहार में उन्होंने नामघोष की रचना की। माधवदेव के जीवन के प्रारंभिक बीस वर्ष अत्यंत कष्ट और संघर्ष में व्यतीत हुए थे।
उक्त अवधि में अपने माता-पिता के साथ इन्हें विभिन्न स्थानों पर भटकना पड़ा था। उनकी शिक्षा उनके पैतृक निवास बांडुका वर्तमान में बंग्लादेश में हुई थी। पिता की मृत्यु के उपरान्त वे अपने बहनोई गथापाणी के यहां चले गए। जीविका निर्वाह के लिए वे पान-सुपारी का व्यवसाय करते थे।
शंकरदेव से साक्षात्कार होने के पूर्व माधवदेव कट्टर शाक्त और पशुबलि विश्वासी थे। अपने बहनोई के माध्यम से ही संयोगवश माधवदेव महापुरुष शंकरदेव से मिले। अपने माता के आरोग्य हेतु माधवदेव देवी के समक्ष बकरे की बलि देना चाहते थे।
बकरे की खोज करने का काम उन्होंने अपने बहनोई को सौंपा था। शंकरदेव के मतावलंबी बहनोई बकरे की बलि को टालना चाहते थे। इससे माधवदेव अत्यधिक क्रोधित हुए। बहनोई ने माधवदेव को शंकरदेव से मिलाया। शंकरदेव और माधवदेव दोनों में तर्क हुआ और शंकरदेव के तर्क से हारकर माधवदेव ने उनसे सन 1522 में दीक्षा ग्रहण की।
जीवनीकारों ने शंकर-माधव के इस मिलन को मणिकांचन संयोग कहा है। तब से माधवदेव ने धर्मप्रचार पर अपना जीवन ही न्यौछावर कर दिया था। प्रतिभा के धनी माधवदेव अत्यल्प समय में ही गुरु शंकरदेव के एक महत्वपूर्ण साथी, विश्वसनीय शिष्य और भविष्य के धर्माधिकारी के रुप में सामने आए।
राज्यों से जुड़ी हर खबर और देश-दुनिया की ताजा खबरें पढ़ने के लिए नार्थ इंडिया स्टेट्समैन से जुड़े। साथ ही लेटेस्ट हिन्दी खबर से जुड़ी जानकारी के लिये हमारा ऐप को डाउनलोड करें।