साइबर संवाद

इतिहास के पन्नों पर भी यही फेस होगा?

क्या इतिहास की अदालत के सामने भी यही चेहरा होगा…? राजा, या लीडर की सफलता क्या होती है? उसका सर ऊंचा कैसे होता है-क्या अप्रतिम वैभव? वेशभूषा? जय जयकार? नाम का भय? विरुदावली?? निष्कंटक साम्राज्य?? या फिर नामचीन लोगो के साथ फोटोग्राफ??

मोर-बत्तखों-बौनों से घिरा निस्तेज नायक जानता है कि गाजे बाजे के साथ निकला कारवां भटक चुका है। एकाकी मसीहा का एकालाप, लाकडाउन की शिकार सूनी सड़को पर रेंग रहा है। अपने मायने खोजते हुए, वजूद के स्थायी निशान खोजते हुए, खुशनुमा निशान खोजते हुए..। वैसे निशान जो कभी बनाये ही नही गए।

लीडर को उसकी लीगेसी से याद किया जाता है। लीगेसी एक अहसास से जुड़ी होती है, जिसे पीढियां याद करती हैं। एक अहसास, जो हर एक बड़े नाम के साथ जुड़ा होता है। नेहरू, इंदिरा, अटल, जिन्ना, माओ, मुसोलिनी, हिटलर, ट्रम्प.. नाम लीजिये, एक अहसास साथ आएगा। प्रेम, सम्मान, गर्व, निराशा, गुस्सा, नफरत, एड्रीनलीन रश .. हर नाम से एक अहसास जुड़ा होता है।

हर किसी को, और उन्हें भी.. अहसास है, कि उनके नाम के साथ कैसा अहसास जुड़ चुका है। जनता की नब्ज पर उनकी पकड़ है, वह डूबती हुई नब्ज गिन पा रहे हैं। उन्हें मालूम है, कि जब तक सत्ता है, ताकत है, भय है-सर झुका दिए जा रहे हैं। वे जानते है कि विरुद का यह शोर कृत्रिम है, अस्थायी है, क्रीत है। तमाम मीडिया, प्रचार, शोरगुल, डाइवर्जन और शोबाजी के बावजूद एक बात, ऊपर से नीचे तक, हर किसी को स्पस्ट रूप से समझ मे आ रही है। पार्टी के लोग, समर्थक, कार्यकर्ता और भक्त मंडली, सभी जानते है। यह, कि सतह के नीचे लावा उबल रहा है।

यह लावा कभी फूटेगा या नही, वक्त बतायेगा। उबलता लावा, बाहर फूटे तो ध्वंस करता है। भीतर जज्ब हो जाये तो छाती को भीतर ही भीतर जलाता है। बस यही वो यह जलन, वो अहसास है, लिगेसी है, जो इस नाम के साथ सदा के लिए जुड़ गई है।।

यह अहसास ही इतिहास को वह कलम देगा, वह लावा ही स्याही बनेगा। जब वक्त, उम्र, ताकत, सत्ता, और जीवन समाप्त होगा, जब इतिहास में जब यह दौर याद किया जाएगा, उंसके बिंब क्या होंगे? प्रतिनिधि छवि क्या होगी?

नोटबन्दी की लाइनों में शंकित लोग, तालाबंदी में सहमे वीरान बाजार, पकौड़े तलते छात्र और मार खाते किसान, पैरों के छाले सहलाते मजदूर या जान की भीख मांगता अखलाक? टेलीविजन की बहसें, नयनाभिराम वीडियो? या शायद सड़कों पर हथियार लहराता रामभक्त गोपाल, रैलियों में नारे गुंजाते युवा? दिग्भ्रमित, परपीड़क, सैडिस्ट यूथ और उनके नारे, जो अपने नतीजे तक न पहुचें तो गनीमत है।

गिनने को बरस और कहने को वक्त अभी बचा है। पर कहने, करने को कुछ शेष नहीं जनाब, छवियां बन चुकी है, साँचा ढल चुका है। अब कोई भाषण नही बन सकता ऐसा, जो इन छवियों को भुला दे? कौन सा मरहम, कौन सा गैस सिलेंडर, कौन सा शौचालय उन लोमहर्षक दृश्यों पर भारी पड़ेगा? तो लिगेसी का पूरा खाका खिंच चुका है। जरा विज्ञापनी शोर थमने दीजिये। दौर को करवट बदलने दीजिये। हर खामोश की जुबान पर इस दौर के जख्मो के गीत होंगे। कोई कुछ नही भूलेगा, माफ भी नही करेगा। शायद सजा भी न दे।

पर इतिहास की अदालत में गवाहियां तो होंगी, जिन्दों की भी, मुर्दों की भी। तब सजा एक ही होगी। वो सजा यह चेहरा होगा। एक अकेला, निस्तेज चेहरा..
झुका सर, नीची निगाहें!!!

लेखक मनीष कुमार की वॉल से…

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