फ्लैश न्यूजसाइबर संवाद
“कभी न काल तो कुम्हि फूली गूई – गूई गंधाई”
पारंपरिक लोकज्ञान का एक ऐसा पेड़ जिसके नीचे खड़े हो पाना मुश्किल है। किंतु यह अनाजों के प्राकृतिक भंडारण में बहुत काम का है। कीड़े दूर भागते हैं इसकी गंध से।
कुम्भी या कुम्हि मध्यप्रदेश के जंगलों एवम खेत खलिहानों में पाया जाने वाला एक छोटे आकार का पतझड़ वाला पेड़ है। इसके फूल देखने मे बहुत आकर्षक दिखाई देते हैं। ऐसा माना जाता था कि इसके पुष्प कभी-कभी या एक दो वर्ष के अंतराल से आते हैं और इनके फूलों या फलों से विशेष प्रकार की गंध आती है, अतः ग्रामीण क्षेत्रों में कुम्हि से जुड़ी एक कहावत प्रचलित है, जो पढ़ने में थोड़ी असभ्य सी लगती है, लेकिन इनमें कोई बदलाव करके इसे सभ्य बनने का मेरा कोई इरादा नहीं है।
“कभी न काल तो कुम्हि फूली गूई – गूई गंधाई”
इसके फलों और गोंद से गांव में पशुओं के लिये कीटनाशक दवा बनाई जाती है। कभी कभी शंशयवश इसे बन्दर लड्डू भी कह दिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसके फलों की माला बनाकर खलिहानों या भंडारगृह में खिड़की किनारे लटका दिया जाता था, जिससे कीट पतंगे अनाज भंडार को नुकसान नही पहुँचाते थे। हानिकारक कीटो के निवारण में इसकी गोंद या रस का प्रयोग किया जाता रहा है। इसका काढ़ा त्वचा रोगों में भी बहुत उपयोगी है।
जंगलों और आदिवासी क्षेत्रो में यह पेड तांत्रिक क्रिया में प्रयोग किया जाता है आदिवासी समाज में कई प्रकार से इसका प्रयोग किया जाता है ऐसा माना जाता है कि पेड की पूजा कर तने की छाल को अभिमंत्रित कपड़े की पोटली मे बांध कर धारण करने से नशे की लत में आराम मिलता है और जहां पर भी कच्ची दारू का निर्माण किया जाता है उस जगह इसके रखने पर कच्ची दारू मैं नशा नहीं हो पाता या शराब नही बन-पाती है और इसके पेड की छाल की कूटकर नदियों में डाल दिया जाता है, जिससे मछलियाँ मूर्छित हो जाती हैं, जिससे इन्हें आसानी से बिना जाल के पकड़ा जा सकता है।
मॉडर्न रिसर्च की बात करें तो कुम्भी की पत्तियों, छाल, तने, जड़, फल और गोंद पर बहुत से कार्य हो चुके हैं। आधुनिक विज्ञान भी इसमें पाये जाने वाले एन्टी ट्यूमर, एन्टी एक्सीडेंट, एबोर्टिव व एंटी माइक्रोबियल गुणों को लोहा मानता है। इसकी गोंद मूत्र संबंधी विकारों के लिए उत्तम मानी जाती है। जाने कौन इन आदिवासियों, वनवासियों व ग्रामीणों को ये विज्ञान के फार्मूले और रिसर्च बता गया, क्योंकि न तो उन्होंने किसी प्रयोगशाला की शकल देखी है, और न ही वो अंग्रेजी वाली भारी भरकम किताबें पढ़ी हैं।
खैर मामला जो भी हो, आधुनिक विज्ञान कभी इन्हें महत्व देना चाहता हैं और न ही पारंपरिक चिकित्सा पद्धति अपने ज्ञान को कट, कॉपी, पेस्ट वाले विज्ञान की भेंट चढ़ाना चाहती है। इन सबके बीच कहीं हमारा पारंपरिक ज्ञान किसी तिलिस्म में कैद होकर न रह जाये। शायद इसी दूरी को बाँटने जा कार्य हम एथनोबोटेनिस्ट के हवाले है, ताकि पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच की इस खाई को पाट सकें। जिस कार्य को गुरूदेव ने शुरू किया था, मैं सदैव उसे आगे बढ़ाते रहूँगा।
सौजन्य से……
डॉ. विकास शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई
जिला छिंदवाडा (म.प्र.)
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