फ्लैश न्यूजसाइबर संवाद

कौन चर गया चरवाह विद्यालय

आज जब कोई तर्कविहीन व्यक्ति ट्विटर पर पूछता है, “चरवाहा विद्यालय के छात्र हो क्या?”
तब लगता है 90 के दशक में हथौड़ा एकदम सही जगह मारा गया था। उनकी छाती का दर्द आज भी क़ायम है।
जिस चरवाहा विद्यालय का नाम सुनकर भारत के निर्लज्ज सामंती समाज की हंसी छूट जाती है। एक समय था जब अमेरिका और जापान जैसे दुनिया भर के कई देशों के वैज्ञानिक इसपर रिसर्च करने भारत आए थे।
बिहार के गाँवों में दलित-पिछड़ों के बच्चे खेतों में पशु चराने जाया करते थे। तब लालूजी ने तय किया ये पशु चराने के साथ-साथ पढ़ाई भी कर सकें। उनके लिए चरवाहा विद्यालय खोला गया।
15 जनवरी 1992 को उद्घाटन के मौक़े पर लालू यादव ने पहली क्लास भोजपुरी में ली और गिनती लिखना बताया। लालू जी ने उसी विद्यालय से संदेश भेजा था, “अपने जमींदारों को ‘मालिक’ कहना छोड़ दीजिए।
भारत में पहली बार कोई नेता सामंतों को उन्हीं की भाषा में जवाब दे रहा था। समाज में हाशिए पर खड़े तबके को पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि उनके बीच का अपना आदमी बिहार की गद्दी पर बैठ चुका है। जो उनके लिए सोंचता है। उनके हित में फ़ैसले लेता है।
तब लालू जी ने नारा दिया था, “ओ सूअर, बकरी, भैंस चराने वालों, घोंघा चुनने वालों पढ़ना-लिखना सीखो।”
चरवाहा विद्यालय में सुबह-सुबह बच्चे जाते, अपने जानवरों को चरने के लिए खेतों में छोड़ देते और स्कूल में तैनात शिक्षक से पढ़ाई करते। उसी स्कूल में महिलाएं बड़ी, पापड़ और अचार आदि बनाने की ट्रेनिंग लेती थीं.
अगर जानवर बीमार होते तो उन्हें देखने के लिए डॉक्टर भी आते थे. स्कूल प्रबंधन बच्चों को घर लौटते समय चारे का गट्ठर देते ताकि घर में पशुओं को खाना खिलाने की चिंता उन्हें ना हो. बिहार सरकार के कुल छह विभाग (कृषि, सिंचाई, उद्योग, पशु पालन, ग्रामीण विकास और शिक्षा विभाग) चरवाहा विद्यालय चलाने में लगे थे।
बिहार के अन्य सरकारी स्कूलों की तरह इसमें भी पढ़ने वाले बच्चों को मध्याह्न भोजन, दो पोशाक, किताबें और मासिक स्टाइपेंड के तौर पर नौ रुपए मिलते थे। इसके अलावा बच्चों को रोजाना एक रुपया मिलता था।
यह एक ऐसा प्रयोग था, जिसे यूनीसेफ सहित कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने सराहा लेकिन बाद में लालूजी जी जेल चले गए। नतीजतन छह-छह विभाग के अधिकारी आपस में तालमेल नहीं बिठा पाए और यह प्रयोग बंद हो गया।
चरवाहा विद्यालय राष्ट्रीय विकास में उपेक्षितों की सहभागिता और सामाजिक न्याय स्थापित करने का सबसे प्रगतिशील स्तंभ था। वंचित समाज के बच्चों को पहली बार स्कूलों तक लाया गया, शिक्षा प्राप्त करने का मौक़ा दिया गया। यहाँ श्रम की प्रतिष्ठा थी, वैज्ञानिकता थी और रोजगार से शिक्षा प्राप्ति का रास्ता था।
लेकिन फिर भी इसका विरोध हुआ। मज़ाक़ बनाया गया। बदनाम किया गया। जानते है क्यों?
यहाँ पढ़ने लिखने वाले बच्चे केवल दलित-पिछड़े थे। जब वंचित समाज के बच्चे पढ़ लिख लेंगे तो उनके खेतों में हलवाही कौन करेगा? उनकी जी हुज़ूरी कौन करेगा? मज़दूरी कौन करेगा? इसीलिए वो लोग आज भी आपके बच्चों को पढ़ने नहीं देना चाहते।
चरवाहा विद्यालय का कॉन्सेप्ट सामन्तवाद के ख़िलाफ़ बड़ी मुहिम में से एक थी। इसीलिए इनकी आँखों में लालू प्रसाद यादव चुभता है।
प्रियांशु कुशवाहा
बिहार

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