साइबर संवाद

किस्सा गजब है,हैंगओवर का सरदर्द पूरे देश को है।।

शाहजी जागीरदार थे, और जागीर पड़ती थी बीजापुर और गोलकुंडा के बीच। शाहजी कभी एक सल्तनत का आधिपत्य मानते, कभी दूसरे का। मगर पुत्र शिवाजी तो किसी और ही मिट्टी का था। इन दोनों से पंगा लिया, तो दिल्ली के मुग़लों से भी। लड़कर एक स्वतंत्र राज्य बनाया, छत्रपति का विरोध लिया। शानदार राजा हुए, पीपुल्स किंग- “जाणता राजा”.. लेकिन 52 की उम्र में चल बसे।

पुत्र शम्भाजी ने गद्दी संभाली, मगर मुग़लों से हार गए, कैद में मृत्यु हुई। सम्भा के बेटे शाहू को भी औरँगजेब ने कैद कर लिया। शिवाजी की दूसरी पत्नी ने अल्पवयस्क पुत्र राजाराम को गद्दी पर बैठाकर बचे खुचे राज्य को सम्भाल लिया।

जब शाहूजी औरँगजेब की मृत्यु बाद मुग़लों से छूटे, राजाराम की जगह गद्दी पर अपना दावा ठोका। उनका साथ बालाजी विश्वनाथ ने दिया। जीतने पर शाहू ने उन्हें पेशवा बना लिया, मीन्स, प्राईमिनिस्टर। दोनों के रिश्ते इतने मजबूत थे कि छत्रपति शाहूजी ने प्राइमिनिस्टर का बालाजी के परिवार के लिए वंशानुगत तय कर दिया। यह निर्णय क्रूशियल साबित हुआ।

आने वाले वक्त में छत्रपति के वंशज कमजोर हुए। पेशवा असल रूलर हो गया। प्रधानमंत्री ही नही, वह सेनानायक भी हुआ। असल मेंं वो महान मराठा राज्य, वो विशाल साम्राज्य छत्रपतियों ने नही, पेशवाओं ने बनाया। मगर वह छत्रपति तो था नही, सोरविन नही था, तो सत्ता दूसरे अफसरों और सरदारों से बांटनी पड़ती थी।

प्रमुख सरदारों को ऑटोनामी दी गयी। ग्वालियर के सिंधिया, नागपुर के भोंसले, बड़ौदा के गायकवाड़ और इंदौर के होल्कर सरदार, कमोबेश पूरे राजा ही थे। इस सम्मिलित मराठा संघ ने अपनी हाइट के दौर में मुग़लों तक को दबाए रखा। रंगदारी तक वसूली। एक वक्त वे मुगलों को उठाकर, पेशवा के बेटे को लालकिले में बिठाने का विचार कर रहे थे।

तो एक वक्त मराठे ही देश के डी-फैक्टो रूलर थे। यही हैंगओवर है।

एक खास महाराष्ट्रीयन एलीट का मानना है, कि अंग्रेजों ने मुग़लों से नहीं, मराठों से-पेशवाओं से-मराठी बाह्मण वर्ग से, भारत की सत्ता छीनी थी।

उनका मानना है, कि पेशवा रक्त और लोहे की नीति से हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान को उभार रहा था। शुद्ध भारतीय राज कायम कर रहा था। मुस्लिम जो बाहर से आकर हिंदूओ को पददलित कर रहे थे, उन्हें हराकर धर्म को फिर गौरवान्वित कर रहा था।

उस सिलसिले को अंग्रेजों ने ब्रेक किया। तो अंग्रेजों के हटने के साथ ही इस एलीट को वही ब्रेक हुई श्रृंखला रिज्यूम करनी थी। सुप्रीमेसी, अपना राज कायम करना है, मलेच्छजन को भगाना है, या टाइट करना है। यह सारी सोच और विचारधारा की मूल ग्रन्थि है।

जब तक कांग्रेस लीडरशीप, रानाडे, गोखले, तिलक के हाथ थी, ये एलीट जुड़े थे। यह उस दौर में उनके लोगों का संगठन था। इतना कि कांग्रेस को हिन्दू संगठन मानकर, उसके मुकाबले मुस्लिम लीग खड़ी हो गयी।

मगर 1920 के बाद, गांधी युग आना एक झटका था। गांधी, नए नवेले लोगों को लीडरशिप थमा रहे थे। मुस्लिमों को पर्याप्त तवज्जो दे रहे थे। बंगाल, गुजरात, पंजाब, दक्षिण .. गांधी के चेले किसी एक इलाके और एक जाति या तबके तक सीमित नही थे। तो गांधी का सिस्टम इनके खिलाफ हो गया। गांधी की मुखलाफ़त की मूल ग्रन्थि यहीं जमी है।

कांग्रेस के नेता आधुनिक सोच के थे, उसका मॉडल ब्रिटिश प्रजातांत्रिक सिस्टम था। उनकी सोच का भारत बहुरंगी था, मिलाजुला था, बराबरी का था। पर इस ग्रुप के दिमाग में तो पेशवाई सामन्तशाही गौरव घुसा था, जिसमें एक हिन्दू राज्य (छत्रपति नही, पेशवा का राज=हिन्दू राज => ब्राह्मण राज => मराठी ब्राह्मण राज) की संकल्पना थी।

ये अनफिनिश्ड एजेंडा था। जो पहले अंग्रेज और फिर कांग्रेस ने रोक दिया था। कांग्रेस की अपार लोकप्रियता के विरुद्ध एक मजबूत संगठन की जरूरत थी। अहिंसा वाली नीति के मुकाबले मिलिटेंसी और उग्रता बढ़ानी थी। पर सत्ता से लम्बी दूरी और गांधी हत्या के छीटों ने इन्हें लगभग विलुप्तता के कगार पर ला दिया था।

मगर ये बचे रहे, बढ़ते रहे। प्रजातंत्र का फायदा लेकर, इन्होंने अनेक संगठन बनाये, किताबें लिखीं, थ्योरी दी। ये पढ़े लिखे, हिन्दू धर्म—विशारद थे, चीजें अपने अंदाज में बांचने की कला थी। लक्ष्मीबाई और नाना साहब की बात खूब कहते, हजरत महल और अहमदुल्लाह को भूल जाते। शिवाजी की सेक्युलर नीति याद रही, टीपू का उल्लेख भूल गए। यह शिक्षा, शाखा में असफल रही, व्हाट्सप पर सफल हुई।

शुरू से उनके दलों और संगठनों को हिन्दू राजे रजवाड़ों का पूरा सहयोग मिला। आखिर वे कोई मौर्य, गुप्त काल के तो थे नहीं। ये सौ—दो सौ साल पुराने हिन्दू राजे, मराठा पेशवाई की ही उपज थे। डीएनए एक था, और मजबूत होती कांग्रेस के खिलाफ जनसंगठन और पोलिटिकल ऑर्गनाइजेशन उनकी भी जरूरत थी।

नेहरू ने ग्वालियर के जीवाजी राव को कांग्रेस में आने का न्योता दिया। जीवाजी घनघोर महासभाई थे, उस दौर में हिंदुवादी दल ग्वालियर इलाके में ही सफल थे। नेहरू को ना नही कर सके, तो पत्नी, याने राजमाता सिंधिया कुछ समय के लिए कांग्रेस में आईं, मगर फिर घरवापसी हो गयी। देश के दूसरे रजवाडे भी हिन्दू महासभा और उसके अनुषांगिक संस्थानों से ही जुड़े।

पोलिटिकल ऑपर्च्युनिस्ट होना पेशवा युग की विरासत है और इन संगठनों की तासीर भी। आप मुस्लिम लीग और अंग्रेजो से भी सहयोग ले सकते हैं। आप पीडीपी और अलगाववादी गुटों से समझौता कर सकते हैं। यह सब देशहित में होता है।

मिलिटेंट खूंरेज हिंदुत्व (मुस्लिम विरोध), और सलेक्टिव हिस्ट्री डिमेंशिया शिकार उस बौद्धिक एलीट ने देशव्यापी संगठन पर कब्जा लगातार बनाये रखा है। बीसवीं सदी में कुछ नया जुड़ा, तो वो फासिस्ट तौर तरीके थे। रेसियल ऊंच—नीच की सोच इनमें रची बसी है।

हिटलरी तौर तरीकों और और पेशवाई हैंगओवर में डूबे हुए ये लोग और इनका संगठन हिंदुस्तान की सबसे बड़ी प्रतिगामी फोर्स है। ये सत्रहवीं सदी के भारत की मानसिक अवस्था लेकर, इक्कीसवीं सदी के भारत पर राज करना चाहते हैं। इनका दिशा सूचक यंत्र पीछे की ओर है, भविष्य की ओर नही। न ये लोकतंत्र मानते हैं, ना समानता और ना ही धर्मनिरपेक्षता..

आप विकास, देशभक्ति, कमजोर विपक्ष, पप्पू, चिंटू गिनाकर इनके किसी भी मोहरे को छत्रपति बना दें, डी—फैक्टो राजा यही आधे दर्जन एलीट रहेंगे। उसी अन—फिनिश्ड एजेंडे पर काम करेंगे।

… और हां, पेशवाई ज्यादा देर तक वोटों का मोहताज रहना पसंद नही करेंगे।

#पूर्वजन्म_की_पोस्ट

मनीष सिंह रिबार्न की फेसबुक वॉल से साभार


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