
स्वामी विवेकानन्द, पार्ट-1/4
सुरेश बाबू के घर में अनेक लोग एकत्रित थे। नरेन्द्र भी एक कोने में बैठा था-अन्यमनस्क सा। किसी के आने की प्रतीक्षा थी।……
सुरेश बाबू ने ठाकुर के साथ प्रवेश किया। बहुत आदर से ठाकुर को ले जाकर नियत स्थान पर बैठाया। ठाकुर ने एक उड़ती हुई दृष्टि से सबको देखा। सुरेश बाबू ने नरेन्द्र को संकेत किया। वह वाद्ययंत्रों के पास जा बैठा। हारमोनियम अपने हाथ में लेकर सुरेश बाबू की ओर देखा।
“गाओ,” सुरेश बाबू ने कहा।
“यह लड़का कौन है ?” ठाकुर ने पूछा।
“यह नरेन्द्रनाथ दत्त है ठाकुर! कॉलेज में पढ़ता है। इसके पिता, विश्वनाथ दत्त हाईकोर्ट में अटार्नी का काम करते हैं। भले आदमी हैं। मुहल्ले में तो उन्हें दाता विश्वनाथ कहा जाता है।”
“यह लड़का भजन ही गाएगा न ?”
“हां, ठाकुर!”
और नरेन्द्र ने गाना आरम्भ किया :
“रहना नहीं देश बिराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना है।
यह संसार कांटों की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरि जाना है।
यह संसार झाड़ ओ झांखर, आग लगि बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरू नाम ठिकाना है।”
ठाकुर पूरी तन्मयता से नरेन्द्र का भजन सुन रहे थे। भजन समाप्त होने पर ठाकुर ने कमरे में बैठे लोगों पर दृष्टि डाली। उनकी दृष्टि रामचंद्र दत्त पर रूकी। संकेत से उन्हें अपने पास बुलाया।
“इस लड़के को लेकर दक्षिणेश्वर आना। सुना सुरेश! इसे लेकर दक्षिणेश्वर आना।”
“अच्छा ठाकुर। अवश्य लाउंगा।”
ठाकुर जाने के लिए उठ खड़े हुए। चलते हुए, नरेन्द्र के पास रूके, “तुम बहुत अच्छा गाते हो।” उन्होंने नरेन्द्र के दोनों हाथ पकड़कर बारी बारी, उन्हें उलट पलटकर देखा, जैसे कुछ खोज रहे हों, “तुम बहुत अच्छे लड़के हो। किसी दिन दक्षिणेश्वर आना। मां काली के दर्शन करना। आएगा न।”
नरेन्द्र को उनका यह सारा व्यवहार कुछ विचत्र लग रहा था। उसे तो सुरेश बाबू ने मात्र एक भजन गाने के लिए बुलाया था और वह पड़ोसी धर्म के नाते चला आया था। यह दक्षिणेश्वर जाने की बात बीच में कहां से आ गई? …वह चुपचाप उनकी ओर देखता रहा।
“आएगा ना? अवश्य आना,” ठाकुर ने आग्रह किया।
नरेन्द्र ने अनायास ही स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। इस वृद्ध की बात को क्या टालना।