जन संसदफ्लैश न्यूजसत्ता पक्ष

खत्म हो शिक्षा के नाम पर धर्म के प्रचार की छूट

यह सवाल अपने आप में आज के दिन बेहद महत्वपूर्ण है कि क्या भारत में शिक्षा के नाम पर धर्म प्रचार की अनुमति जारी रहनी चाहिए? किसे नहीं पता कि धर्म प्रचार के कारण हमारे अपने देश में और पूरे विश्व में करोड़ों लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं और रोज ही मारे जा रहे हैं।

क्या यह सच नहीं है कि भारत में कुछ खास धर्मों के मानने वाले शिक्षण संस्थानों में अपने-अपने धर्मों के प्रचार के लिए कोशिशें करते रहते हैं। कभी कभी सच में लगता है इस मसले पर देश में एक बार खुली बहस हो जाए कि क्या भारत में धर्म प्रचार की स्वतंत्रता जारी रहे अथवा नहीं ?

देखा जाए तो केवल अपने धर्म पालन की सबको स्वतंत्रता होनी चाहिये। लेकिन, शिक्षण संस्थानों में अबोध बच्चों को अपने धर्म की अच्छाई और बाकी सभी धर्मों की बुराई बताना बच्चों को अबोध उम्र में कट्टर बनाना और दूसरे धर्मावलम्बियों के प्रति घृणा फैलाना कहाँ तक उचित है ? यही तो देश में धार्मिक उन्माद फैला रहा है ? यही तो आपसी असहिष्णुता की मूल धर्म के प्रचार-प्रसार की छूट की कोई आवश्यकता नहीं। धर्म कोई दुकान या व्यापार तो है नहीं जिसका प्रचार प्रसार करना जरूरी हो।

भारतीय संविधान धर्म की आजादी का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 25(1) में कहा गया है कि ” सभी व्यक्ति समान रूप से धर्म का प्रचार करने के लिए स्वतंत्र हैं।” लेकिन अनुच्छेद 26 कहता है कि धार्मिक आजादी और धार्मिक संप्रदायों के क्रियाकलाप में शांति और नैतिकता की शर्तें भी हैं। अनुच्छेद 28 में कहा गया है कि सरकारी शैक्षिक संस्थानों में कोई धार्मिक निर्देश नहीं दिया जाएगा।

अगर हम इतिहास के पन्नों को खंगाले तो देखते हैं कि भारत के संविधान निर्माताओं ने सभी धार्मिक समुदायों को अपने धर्म के प्रचार की छूट दी थी। क्या इसकी कोई आवश्यकता थी ? यह मानना होगा कि दो धर्म क्रमश: इस्लाम और ईसाई धर्म के मानने वालों की तरफ से लगातार यह प्रयास होते रहते हैं कि अन्य धर्मों के लोग भी येन-केन-प्रकारेण किसी भी लालच में उनके धर्म का हिस्सा बन जाएं।

यह कठोर सत्य है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। इस मसले पर देश में बार-बार बहस भी होती रही है और आरोप भी लगते रहे हैं कि इन धर्मों के ठेकेदार लालच या प्रलोभन देकर गरीब आदिवासियों, दलितों वगैरह को अपना अंग बनाने की फिराक में लगे ही रहते हैं। बेशक, भारत में ईसाई धर्म की तरफ से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में ठोस और ईमानदारी से काम भी किया गया है। पर उस सेवा की आड़ में धर्मांतरण ही मुख्य लक्ष्य रहा है।

मदर टेरेसा पर भी धर्मांतरण करवाने के अकाट्य आरोप लगे हैं। उधर, इस्लाम का प्रचार करने वाले बिना कुछ कहे ही धर्मांतरण करवाने के मौके लगातार खोजते हैं। हालांकि मुसलमानों के अंजुमन इस्लाम ने भी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है। यह मुंबई में सक्रिय है। अब आप देखें कि आर्य समाज, सनातन धर्म सभी और सिखों की तरफ से देश में सैकड़ों स्कूल, कॉलेज, अस्पताल वगैरह चल रहे हैं।

पर इन्होंने किसी ईसाई या मुसलमान को कभी धर्मातरण करवाने का कभी प्रयास नहीं किया। एक छोटा सा उदाहरण और देना चाहूंगा। एमडीएच नाम की मसाले बनाने वाली कंपनी के संस्थापक महाशय धर्मपाल गुलाटी को सारा देश जानता है। वे पक्के आर्य समाजी हैं। महाशय जी पूरी दुनिया में ‘किंग ऑफ़ स्पाइस’ माने जाते हैं। वे देश की राजधानी में एक अस्पताल और अनेक स्कूल चलाते हैं। कोई बता दे कि उन्होंने कभी किसी गैर-हिन्दू को हिन्दू धर्म से जोड़ने की कोशिश भी की हो।

खैर,धर्म परिवर्तन केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में एक जटिल मसला रहा है। इस पर लगातार बहस होती रही है। यह समझने की जरूरत है कि मोटा-मोटी संविधान कहता है कि कोई भी अपनी मर्जी से अपना धर्म बदल सकता है, यह उसका निजी अधिकार है। पर किसी को डरा-धमका या लालच देकर जबरदस्ती या लव जिहाद करके धर्म परिवर्तन नहीं करा सकते।

संविधान संशोधन के द्वारा धर्मप्रचार को रोकना सम्भव तो है। पर यह देखना चाहिए कि धर्म के नाम पर बवाल किस वजह से हुआ ? यदि धर्म प्रचार की वजह से हुआ है तो किन लोगों की वजह से हुआ है? एक राय यह भी है कि भारत में उन धर्मों के प्रचार की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए जिनका उदय भारत भूमि पर हुआ है। जैसे हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध। अगर यह धर्म अपनी जन्म भूमि पर भी अधिकार खो देंगे तो यह तो उनके साथ बड़ा अन्याय होगा।

समस्या का मूल कारण इस्लाम और ईसाई हैं। इस्लाम और ईसाइयत को छोड़ दें तो बाकी धर्मो के बीच कोई आपसी विवाद नहीं है। यदि सभी धर्म प्रतिबन्धित हों जिनमें हिन्दू धर्म और उससे निकले दूसरे धर्म भी शामिल होंगे तो यह गेंहूँ के साथ घुन पिसने जैसी बात हो जायेगी। हाँ केवल इस्लाम और ईसाइयत का धर्म प्रचार प्रतिबन्धित हो तो युक्ति संगत लगता है।

फिर भी इतना तो हो ही सकता है कि विदेशियों को भारत में धर्म प्रचार की मनाही होनी चाहिए। आगे बढ़ने से पहले पारसी धर्म की भी बात करना सही रहेगा। यह भी भारत की भूमि का धर्म नहीं है। यह भारत में इस्लाम और ईसाइयत की तरह से ही आया है। लेकिन, पारसियों ने भारत में अपने धर्म के प्रसार-प्रचार की कभी चेष्टा तक नहीं की। भारत में टाटा, गोदरेज, वाडिया जैसे बड़े उद्योगपति हैं। इन समूहो में लाखों लोग काम करते हैं। ये देश के निर्माण में लगे हुए हैं। सारा देश इनका आदर करता है। इनसे तो किसी को कोई मसला नहीं रहा।

इस बीच, धर्म की अवधारणा से भिन्न है मजहब का ख्याल। धर्म का तात्पर्य मुख़्यतः कर्तव्य से है, जबकि मजहब की अवधारणा किसी विशिष्ट मत को मानने से है। इसमें किसी क़िताब में दर्ज शब्दों के अक्षरशः पालन की अपेक्षा की जाती है। किताबिया मजहब जो मानते हैं उन्हें वैसा ही मानते रहने की आज़ादी बेशक बनी रहे कोई हर्ज नहीं, जैसे कोई सोते रहने की आज़ादी का तलबगार है, जागना नहीं चाहता, उसे सुख से सोने दीजिए।

मगर दूसरों से यह कहने का अधिकार कि सत्य का ठेकेदार वही है, असंवैधानिक घोषित होना ही चाहिए। मतलब मजहबी प्रचार पर रोक लगाने पर बहस हो जाए और इस पर एक कानून बन जाये तो क्या बुराई है। एक बार इस तरह की व्यवस्था हो जाए तो यह भी पता चल जाएगा कि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में कितने लोग निस्वार्थ भाव से काम कर रहे हैं और कितने सवा के नाम पर धर्म परिवर्तन में लगे हैं।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तम्भकार और पूर्व सांसद हैं)

राज्‍यों से जुड़ी हर खबर और देश-दुनिया की ताजा खबरें पढ़ने के लिए नार्थ इंडिया स्टेट्समैन से जुड़े। साथ ही लेटेस्‍ट हि‍न्‍दी खबर से जुड़ी जानकारी के लि‍ये हमारा ऐप को डाउनलोड करें।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Back to top button

sbobet

https://www.baberuthofpalatka.com/

Power of Ninja

Power of Ninja

Mental Slot

Mental Slot