लोकनायक जयप्रकाश नारायण
इस कॉलम में हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, देश और उसकी जनता के लिए तह तक ईमानदार एक महापुरूष की जीवनी।
तो लीजिए प्रस्तुत है उनकी बानगी।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा प्यार और सम्मान जिन दो नेताओं को मिला, वे थे -पंडित जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण। दोनों में मौलिक अंतर यह रहा कि जहां नेहरू हमेशा राजसत्ता के शिखर पर रहे, वहीं जयप्रकाश नारायण हमेशा अपने को राजसत्ता से अलग रखकर लोकसत्ता को मजबूत करने में लगे रहे।
दरअसल महात्मा गांधी के बाद ऐसा करने वालों में वे एकमात्र व्यक्ति थे। वे राजनीति और राजसत्ता के ऊपर लोकनीति और लोकसत्ता पर अंकुश रखने के पक्षधर थे ताकि राजसत्ता को भ्रष्ट होने से बचाया जा सके। ऐसा व्यक्ति बार-बार नहीं आता।
हालांकि जयप्रकाश नारायण ने महात्मा गांधी की तरह संसदीय संस्था को कभी वेश्या कहकर नहीं नकारा, लेकिन उन्होंने केंद्रीय आर्थिक विकास और ग्राम स्वराज की अवधारणा पर बल दिया।
उनके जीवन में ऐसे अवसर कई बार आये जब वे सत्ता के शीर्ष पर जा सकते थे, किन्तु कोई पद उन्हें कभी आकृष्ट नहीं कर सका। स्वाधीनता प्राप्ति के तुरन्त बाद गर्वनर-जनरल माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा कि उन्हें अपने मंत्रीमण्डल मे कुछ युवाओं को शामिल करना चाहिए और उन्होंने विशेष रूप से जे0पी0 के नाम का उल्लेख किया।
सन 1953 में पंउित नेहरू ने जयप्रकाश जी और उनके समाजवादी साथियों को केन्द्रीय मंत्रीमण्डल में शामिल होने का आमंत्रण दिया था, किन्तु जे0पी0 ने सरकार में शामिल होने के लिए 14 शर्तें रख दीं। उन्होंने कहा कि एक निश्चित कार्यक्रम पर सहमति हुए बिना वे मंत्री नहीं बनेंगे। जाहिर है, ऐसी सहमति नेहरू से बन ही नहीं सकती थी और अन्तत: सहमति नहीं बन पाई।
जब अमेरिकी लेखक जॉन गुंटर 1950 के दशक में भारत आये तो उन्होंने नेहरू का साक्षात्कार लेने के बाद उनसे पूछा कि उन्हें गुंटर को भारत में और किससे मिलना चाहिए। गुंटर ने लिखा है कि नेहरू ने उन्हें जे0पी0 से मिलने की सलाह दी थी और आगे कहा कि वे (जे0पी0) भारत के भावी प्रधानमंत्री हैं।
दूसरा अवसर सन 1962 में आया जब चीनी आक्रमण के कारण तत्कालीन सरकार के विरुद्ध असंतोष था। राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने उनसे कहा “जेपी मेक रेडी टू टेक ओवर।” कुछ सांसदों ने भी इस दिशा में पहल की। नेतृत्व परिवर्तन का समर्थन करने वालों की बैठक एक समाजवादी साथी पुरुषोत्तम त्रिकमदास के घर हुई और उनसे नेतृत्व स्वीकार करने का आग्रह किया गया। किंतु जेपी ने इसे न केवल ठुकरा दिया बल्कि नेहरू से मिलकर उन्हें अपना समर्थन दिया।
फिर सन 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए कुछ नेताओं ने जयप्रकाश जी का नाम सुझाया। लाल बहादुर शास्त्री ने कहा कि यदि जे0पी0 प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होते हैं तो वह शास्त्री अपना नाम वापस ले लेंगे। इस बार भी जे0पी0 ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते हुए कहा कि एक बार सत्ता से दूर होने के बाद फिर इससे सटना नहीं है।
फिर सन 1967 में राष्ट्रपति पद के लिए डॉ0 राममनोहर लोहिया और मीनू मसानी ने उनका नाम सुझाया। जे0पी0 के नाम पर कई दलों और कांग्रेस के भी कुछ सदस्यों का समर्थन मिलने लगा था। लेकिन उन्होंने डॉ0 जाकिर हुसैन के लिए अपने समर्थन की घोषणा कर दी। इन सबका एकमात्र कारण था: लोक शक्ति में उनकी अटूट आस्था।
उनके विचारों में जिन्हें तारतम्य और सुसंगति नजर नहीं आती, उन्होंने कभी जयप्रकाश जी के विचारों के अंदर झांकने का प्रयास नहीं किया। वे राजनीति से ज्यादा सत्य के अन्वेषक थे। सत्य को जानने की चेष्टा में वे मार्क्सवाद से समाजवाद, गॉंधीवाद, सर्वोदय आदि कई विचारधाराओं के प्रभाव में आए तथा कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि आंदोलन सत्य और न्याय की मांगों पर खरा नहीं उतर रहा है, उन्होंने अपने को उससे अलग करने का साहस दिखाया।
उनके एक मित्र और सहयोगी श्री एसएम जोशी ने टिप्पणी की है- जयप्रकाश नारायण मेरे विचार में, एक राजनीतिज्ञ से ज्यादा शिक्षक थे, वे सत्य के अन्वेषक थे। जयप्रकाश तह तक ईमानदार थे और मैं उनके जीवन से अनेक घटनाओं का उदाहरण दे सकता हूं इससे पता चलेगा कि सत्य और सत्यवादिता का स्थान उनकी नजर में उन सभी सामान्य चीजों से काफी ऊपर था, जिन्हें आप और हम महत्वपूर्ण समझते हैं।
उनके हर काम तथा विचार में सबसे ज्यादा जोर होता था जनता पर। लोकतंत्र में वे लोक को सर्वोपरि मानते थे और बाकी सभी चीजों को उसके बाद। इसी भावना से उपजी थी संपूर्ण क्रांति की अवधारणा। गांधीजी के ग्राम-स्वराज की कल्पना की ही तार्किक परिणति थी संपूर्ण क्रांति। इसका उद्देश्य था सामाजिक संरचना को पूरी तरह बदलना क्योंकि उनके विचार में व्यवस्था इतनी भ्रष्ट हो चुकी थी कि बिना पूरी व्यवस्था बदले नैतिक और समतामूलक समाज का निर्माण नहीं हो सकता।
जे0पी0 ने सन 1969 में ही लिखा था, गांधी की अहिंसा सिर्फ कानून और व्यवस्था की वकालत या यथास्थितिवाद के लिए पर्दा नहीं थी, बल्कि एक क्रांतिकारी दर्शन थी। यह, दरअसल एक सम्पूर्ण क्रान्ति का एक दर्शन है क्योंकि इसमें व्यक्तिगत और सामाजिक आचारों एवं मूल्यों का उतना ही समावेश है जितना आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं का।