साइबर संवाद

BJP विकास की बजाय बुराई में तलाश रही जीत

प्रधानंमत्री नरेंद्र मोदी और BJP अध्यक्ष अमित शाह दोनों गुजरात से हैं। ऐसे में विधानसभा चुनाव का माहौल अभी से पूरी तरह गर्मा चुका है। राहुल गांधी बीजेपी पर तीखे प्रहार कर रहे हैं। राहुल के बयानों से भाजपा में बेचैनी का माहौल है। दुनिया भर में गुजरात के विकास का माडल मोदी पेश करते रहे हैं। लेकिन बदले हालातों में मोदी गुजरात में विकास की बात करने के बजाय कांग्रेस की बुराई में ही फायदा देख रहे हैं….

तनवीर जाफरी

 BJP सरकार भी अपने-आप को सत्ता में बचाए रखने के लिए और सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए किसी भी नैतिक या अनैतिक कार्यों से परहेज नहीं कर रही है। 1975 में यदि प्रेस की आजादी पर सेंसरशिप की तलवार लटकी हुई थी तो आज की प्रेस को या तो खरीदा जा चुका है। या फिर डरा-धमका कर अथवा उसपर अपनी ‘कृपा’ बरसा कर उसे अपने नियंत्रण में किया जा चुका है।

भारतवर्ष ने अनैतिक राजनैतिक हालात का सामना 1975 में किया था। जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय से चुनाव संबंधी एक मुकद्दमा हारने के बावजूद इंदिरा गांधी ने नैतिकता के आधार पर अपनी अदालती हार को स्वीकार नहीं किया। और प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के बजाए देश में आपातकाल की घोषणा की। और सत्ता में बने रहने जैसा तानाशाही पूर्ण फैसला लिया।

देश और दुनिया में इंदिरा गांधी के इस कदम को तानाशाही भरा कदम बताया गया था। तथा इस घटनाक्रम को लोकतंत्र का काला दौर, प्रेस की आजादी का गला घोंटना तथा लोकतंत्र की हत्या जैसे विशेषणों से नवाजा गया था। नतीजतन 1977 में हुए लोकसभा चुनावों में अजेय समझी जाने वाली इंदिरा गांधी को चुनाव में जनता ने सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। कांग्रेस की हार के बाद ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस कभी सत्ता का मुंह भी नहीं देख सकेगी। परंतु मात्र ढाई वर्षों के बाद ही जनता पार्टी की सरकार से भी देश की जनता का मोह भंग हो गया और 1979 में कांग्रेस पार्टी इंदिरा गांधी के ही नेतृत्व में पुनरू सत्ता में आ गई।

इंदिरा गांधी की मिसाल यह समझ पाने के लिए काफी है कि देश की जनता कब, किसके लिए क्या फैसला लेगी कुछ कहा नहीं जा सकता। भारतीय लोकतंत्र के ऐसे फैसले यह जरूर दर्शाते हैं कि यहां के मतदाता राजनैतिक छल-कपट, पाखंड तथा तानाशाही जैसी विसंगतियों को एक सीमा तक तो सहन करते हैं। और जब पानी सिर से ऊपर हो जाए तो 1977 और 1979 जैसे नतीजे भी सामने आ सकते हैं।

आपातकाल का दौर भारतीय राजनीति का एक काला दौर था। जिसे आज भी कांग्रेस विरोधी दल 25 जून 1975 के दिन विरोध दिवस के रूप में याद करते हैं। परंतु राजनीति का वर्तमान दौर संभवतः 1975-77 से भी अधिक भयावह तथा अंधकारमय प्रतीत हो रहा है। बेशक इस समय देश में आपातकाल की घोषणा तो नहीं की गई है।

2014 में देश के मतदाताओं को जो सपने दिखाकर BJP सत्ता में आई थी। नरेंद्र मोदी को एक चमत्कारी प्रधानमंत्री की रूप में देख रही थी। अब उसी जनता को यह समझ में आ चुका है कि 2014 के चुनावों से पूर्व किए गए वादे महज लफ्फाजी या आश्वासन मात्र थे। और वह सब लच्छेदार भाषण केवल सत्ता में आने के लिए ही दिए जा रहे थे। स्वयं भाजपा अध्यक्ष अमितशाह ऐसे ही वादों को ‘चुनावी जुमला’ बता चुके हैं।

दूसरी ओर BJP अपने चुनाव में किए गए वादों को पूरा करने के बजाए पूरा ध्यान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हिंदुत्ववादी एजेंडे को लागू करने में दे रही है। जिनका कि चुनाव पूर्व न तो जनसभाओं में कोई जिक्र था। भाजपा के पक्ष में मतदान करने वालों ने उस समय ऐसा सोचा था कि भाजपा अपने चुनावी वादे पूरे करने के बजाए संघ के गुप्त एजेंडे को लागू करने में लगाएगी।

इस समय देश में इतिहास बदले जा रहे हैं। जीत को हार और हार को जीत लिखा जा रहा है। देशभक्त को देशद्रोही साबित करने की कोशिश की जा रही है। देश की गंगा-जमनी तहजीब जिसे हम सदियों से अनेकता में एकता के दर्शन के रूप में जानते व मानते रहे हैं। उस संस्कृति के विषय में सत्ता के मुखिया यह कहते सुनाई दे रहे हैं कि दो अलग-अलग धर्मों व संस्कृतियों के लोग एक साथ नहीं रह सकते। शहरों, कस्बों व गांव के नाम बदले जा रहे हैं। स्कूल व कॉलेज के पाठ्यक्रमों में अपने पक्ष, मत तथा सोच व विचारधारा के अनुरूप बदलाव किया जा रहा है। जिस संविधान की शपथ लेकर वर्तमान सरकार सत्ता में आई है उसी संविधान से छेड़छाड़ करने की कोशिशें की जा रही हैं।

परंतु इन तमाम बातों में से कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिससे एक आम भारतवासी को रोजगार मिल सके। उसकी भूख मिट सके। उसके बच्चे को सही शिक्षा या परिवार के स्वास्थय की रक्षा हो सके। मंहगाई मिट सके या गरीब, मजदूर व किसान को दो वक्त की रोटी की गारंटी हासिल हो सके। इतना जरूर है कि इस प्रकार की फितनापरस्त बातों से देश में अशांति का वातावरण जरूर फैलता है। और समाज में वैचारिक आधार पर मत विभाजन होने की प्रबल संभावना रहती है।

बड़े आश्चर्य की बात है कि नरेंद्र मोदी 2014 में कांग्रेस के यूपीए के शासनकाल को निठल्ला बताते हुए भारी-भरकम वादों के साथ सत्ता में आये थे। आज लगभग साढ़े तीन वर्ष का शासन पूरा करने के बाद भी अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए तथा अपने किए गए वादों को पूरा न कर पाने के चलते आज भी कांग्रेस पार्टी को ही कोसती हुई नजर आ रही है। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल तथा विभिन्न भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री अब भी अपनी उपलब्धियां तो कम गिनाते हैं।

कांग्रेस की नाकामियों का ढिंढोरा अधिक पीटते हैं। गोया कांगेस मुक्त भारत का नारा देने वालों को आज भी कांग्रेस का भय सता रहा है। निश्चित रूप से सत्ता के यह चहेते 1979 के घटनाक्रम की पुनरावृति होते हुए देख रहे हैं। गुरदासपुर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की भारी विजय हो या गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड या पंजाब जैसे राज्यों में होने वाले अनेक निकाय अथवा विश्वविद्यालय स्तर के चुनाव परिणाम। देश के युवाओं एवं मतदाताओं के रुख से साफ होने लगा है कि 2019 संभवत: 1979 की पुनरावृति करने जा रहा है।

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात में अपना चुनावी भाषण पूरी तरह से कांग्रेस विरोध पर ही केंद्रित रखा जबकि उन्हें अपनी उपलब्धियों तथा योजनाओं के नाम पर वोट मांगना चाहिए। परंतु बड़े ही आश्चर्यजनक रूप में यह देखा जा रहा है कि गुजरात में भाजपा को भविष्य में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पूर्व जिस संकटकालीन दौर से गुजरना पड़ रहा है। गत् पंद्रह वर्षों में भाजपा को ऐसी दयनीय स्थिति का सामना कभी नहीं करना पड़ा

मीडिया प्रबंधन के परिणामस्वरूप भले ही गुजरात में भाजपा की स्थिति अच्छी दिखाई दे रही हो। हकीकत तो यही है कि भाजपा नेताओं को जगह-जगह काले झंडे दिखाए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री से लेकर अन्य सभी पार्टी नेताओं की जनसभाओं से जनता नदारद है। प्रदर्शनकारियों पर पुलिस अत्याचार हो रहा है।

जनता भाजपा के चुनावी पोस्टर व होर्डिंग तक लगाना पसंद नहीं कर रही है। गोया ऐसा प्रतीत होने लगा है कि मोदी सरकार एक ऐसी काठ की हांडी साबित हो सकती है जो बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती।

लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं।

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