आउटसोर्सिंग से किसका भला होता है
मनुष्यों (मजदूर, कामगार और मेहनतकश) का सामग्री की तरह खरीद फ़रोख़्त भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अंतर्गत प्रदत्त गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार का हनन है।
जिसे माननीय उच्च न्यायालय और माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा संज्ञान लेकर तत्काल प्रभाव से निरस्त करना चाहिए। जहाँ न्यायालय ने एक तरफ बँधुवा मजदूरी जैसी सामाजिक कुप्रथा को बँधुआ मजदूरी अधिनियम-1976 द्वारा हमेशा के लिए बन्द कर दिया।
वहीं दूसरी तरफ भारतीय संविदा अधिनियम-1972 का विस्तार करके मानव संसाधनों के खरीद-फ़रोख़्त पर लागू करके न्यायिक कुप्रथा को जन्म दिया। जिससे शोषण और जुल्म के नए अध्याय की शुरुआत हुई, जिसको स्वयं न्यायालय का सह प्राप्त है।
ऐसे में इस कुप्रथा से लड़ना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है। संविदा मानव संसाधनों के लिए भयावहता की सीमा तब पार कर गयी, जब सरकारों द्वारा इसमें आउटसोर्सिंग की शुरुआत की गई। जिसमें मेहनतकशों के मेहताना के एक अंश के साथ-साथ सरकारी धन का एक अंश आउटसोर्सिंग के जेब में जाने लगा।
उत्तर प्रदेश सरकार भी मनरेगा में विभागीय संविदा को खत्म करके जेम पोर्टल पर आउटसोर्सिंग से कर्मचारियों को संविदा पर रखने जा रही है। स्पष्ट है कि शोषण और जुल्म के नए अध्याय की शुरुआत की जा रही है।
उत्तर प्रदेश में मनरेगान्तर्गत कार्य कर रहे ग्राम रोजगार सेवक, तकनीकी सहायक, (जूनियर इंजीनियर के तुल्य) लेखा सहायक, कंप्यूटर ऑपरेटर और अतिरिक्त कार्यक्रम अधिकारी (खण्ड विकास अधिकारी के तुल्य) जैसे विभागीय संविदा कर्मचारियों का क्रमशः ₹6000 मासिक, ₹11200, ₹11200, ₹11200 और ₹28000 मासिक अल्प मानदेय निर्धारित है।
संजय सिंह द्वारा भारत सरकार की एक वेबसाइट पर शिकायत करते हुए इस ओर ध्यान आकृष्ट किया गया कि नए कानून के तहत मनरेगा संविदा कर्मियों का मानदेय भी मिनीमम ₹24000 मासिक किया जाये।
इस पर सरकार का क्या कहना है ध्यान दिया जाय पत्र संलग्न मनरेगा कर्मियों के मानदेय का निर्धारण राज्य सरकार द्वारा किया जाता है। मनरेगा योजनांतर्गत कार्मिकों की नियुक्ति संविदा के आधार पर की गयी है। योजनांतर्गत मनरेगा कार्मिक संविदा के आधार पर कार्यरत हैं। अतः उपरोक्त शासनादेश के आलोक में मनरेगा कार्मिकों का मानदेय ₹24000 किये जाने का कोई औचित्य नहीं है।
सरकार द्वारा उल्लेखित बिंदुओं के आलोक से स्पष्ट है कि सरकार भी संविदा को अभिशाप की तरह ले रही है। जिससे मिनिमम मानदेय 24000 लागू करने से पीछे हट रही है। या सरकार यह समझती है कि संविदा कर्मचारी मनुष्य नहीं है।
जिससे उन पर प्राइस इंडेक्स का कोई प्रभाव नहीं पड़ने के कारण उनको मिनिमम निर्धारित मानदेय नहीं दिया जा सकता। दोनों ही स्थितियों से स्पष्ट है कि संविदा के कारण सरकार भी लोकहित में कल्याणकारी निर्णय नहीं ले पा रही है।
ऐसे में माननीय उच्च न्यायालय व माननीय उच्चतम न्यायालय को स्वतः संज्ञान लेकर मानव संसाधनों की संविदा पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाते हुए सरकारों को उन्हें नियमित करने का निर्देश दिया जाना ही संविधानहित में होगा।