स्वामी विवेकानन्द, पार्ट—1/2
रविवार के दिन प्रात: ही हेडो तालाब के किनारे, एक गोरा पादरी सड़क पर भाषण की मुद्रा में खड़ा था। वह मदारी के समान भीड़ इकठ्ठी हो जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। छितरे छितरे से लोग इधर उधर आते जाते दिखाई पड़ रहे थे। कुछ उसके निकट आ गए थे। कुछ उत्सुकता से उसकी ओर देख रहे थे।
सहसा पादरी बोला, हमारा ईश्वर इस सारे संसार को बनाता है। सूरज, चांद और सितारे बनाता है। इस सारी कायनात को बनाता है, और हिन्दुओं के ईश्वर को बनाता है, इनका कुम्हार।
नरेन्द्र के पग थम गए। उसने दृष्टि उठाकर पादरी की ओर देखा।…किन्तु व्यर्थ के झमेले से बचने के लिए, उसने स्वयं को बलात आगे धकेला।…..पादरी के शब्द अब भी उसके कानों में पड़ रहे थे।
“……..वह गंदा कुम्हार अपने पैरों से रौंदकर इस गंदी मिट्टी से एक घटिया सी मूर्ति बना देता है और हिन्दू उसकी पूजा करने लगते हैं। उसके सम्मुख माथा टेकने लगते हैं। वह उनका ईश्वर हो जाता है।”
नरेन्द्र सब कुछ अनसुना कर चुपचाप आगे बढ़ जाना चाहता था, किन्तु उसके पैरों से जैसे रोक ही लग गई।
“हिन्दू का धर्म है या राक्षसों का अघोर तंत्र। पति अपनी पत्नी को प्रतिदिन पीटता है। किसी दिन अधिक क्रोध आ जाए तो उसे जीवित जला देता है। वह नहीं जलाता तो उसकी मृत्यु के बाद उसके संबन्धी उसकी पत्नी को सती बनाने के नाम पर जीवित जला देते हैं।….यह कोई धर्म है?”
अब नरेन्द्र स्वयं को रोक नहीं पाये। उसने पादरी को तीखी दृष्टि से देखा, पादरी को घेरकर खड़े, उसकी बातें सुन रहे लोगों पर भी घृणा की दृष्टि डाली! और फिर भीड़ को धकियाता सा उस पादरी के सामने जा खड़ा हुआ, “क्या प्रत्येक हिन्दू पति अपनी पत्नी को जीवित जला देता है?”
पादरी ने उपेक्षा से उसकी ओर देखा और उद्दंडता से कहा, “हां जला देता है।”
“तो फिर इतनी सारी सुहागिनें जीवित कैसे हैं? नरेन्द्र ने उसे डांटा, सारी विधवाओं की जीवित जला दिया जाता है तो तीर्थस्थलों और मंदिरों में इतनी सारी विधवाओं की भीड़ कहां से आ जाती है?”
“मंदिर जाता ही कौन है।” पादरी बोला, “हम तो यही जानते हैं कि हिन्दू लोग अपनी पत्नियों को जला देते हैं।”
“कुछ मूर्खों के दुष्कर्मों के कारण तुम सारे हिन्दू समाज को कलंकित कर रहे हो। जो जलाता है, उस अपराधी को दंडित न करवाकर तुम हमारे धर्म को कलंकित करने में लगे हो।”
पादरी को क्रोध आ गया, “ऐ ऐ ज्यादा मत बोल।”
“समाज की कुप्रथाओं को धर्म पर आरोपित करना न्याय नहीं है।” नरेन्द्र उग्र हो उठा, “अंग्रेजों को शराब पीते देखकर हमने तो कभी ईसा को मदिरापान का समर्थक नहीं कहा…न ही ईसाई समाज को पियक्कड़ मााना।”
“ऐ होश में आओ। तुम हमारे पैगम्बर का अपमान नहीं कर सकते।”
“अपने पैगम्बर का अपमान तो तुम कर रहे हो- झूंठ बोलकर, अन्य धर्मों की झूठी निंदा कर।”
“यह झूंठ है? पादरी चिल्लाया, “क्या तुम्हारे यहां सति प्रथा नहीं है?”
“ऐसी कोई प्रथा होती तो प्रत्येक घर में पत्नियां, पति के शव के साथ चितारोहण कर रही होतीं। नरेन्द्र बोला, सती वह नहीं होती, जो पति के शव के साथ चितारोहण करती है…”
पादरी आपे से बाहर हो गया, वही होती है। वही होती है। तुम लोग अंधविश्वासी हो। औरतों को जला देते हो। तुम्हारी माताएं अपने जीवित बच्चों की नदी में फेंक देेती हैं। तुम लोग मनुष्य नहीं पशु हो। मिट्टी के बुतोंं की पूजा करते हो।
चारों ओर से लाग जमा होने लगे। कुछ धक्का मुक्का भी होने लगा। कुछ लोग बीच बचाव में चीख चिल्ला रहे थे।
“हम मूर्तिपूजा करते हैं, तो तुम क्या करते हो?” नरेन्द्र ने कहा, तुम्हारे गिरजों पर क्या सलीब पर टंगी ईसा की मूर्ति नहीं होती? माता मरियम की मूर्ति के सम्मुख सिर नहीं झुकाते तुम लोग?”
“ऐ जुबान संभालकर। अंग्रेजों के राज्य में तुम एक पादरी का अपमान कर रहे हो। पादरी ने अपना घूंसा हवा में लहराया, जब जेल में सड़ोगे तब जानोगे कि किस से बातें कर रहे हो।”
भीड़ में से आगे बढ़कर एक बलिष्ठ पुरूष ने पादरी का उठा हुआ हाथ थाम लिया, “सावधान! इस बच्चे पर हाथ मत उठाना।”
हक्का बक्का सा पादरी उस पुरूष की ओर देख ही रहा था कि एक अन्य व्यक्ति भी आगे बढ़ आया, “तर्क नहीं कर सका तो घूंसेबाजी पर उतर आया।”
पादरी का भी एक पक्षधर सामने आ गया, “तुम चुप रहो। अधिक बकवास करोगे तो तुम्हारे ये सारे दांत तोड़ दूंगा, जो मुंह से बाहर निकल आए हैं।”
वे लोग एक दूसरे से गुत्थगुत्था हो रहे थे कि एक सिपाही आ गया, “ऐ कौन झगड़ा कर रहा है। दंगा करोगे तो मार-मार कर हड्डियां तोड़ दूंगा। अंग्रेजों का राज है। इसे नवाबी राज मत समझना।”
“हम दंगा नही कर रहे । नरेन्द्र ने कहा, “पर इन्हें भी तो संभालिए जो धार्मिक प्रवचन के नाम पर हमारे धर्म का निरंतर अपमान करते रहते हैं।”
“अच्छा समझा दूंगा इन्हें भी। तुम तो चलो। जिसे देखो, वही बड़ा विद्वान हो गया है।”