महाराणा प्रताप और हल्दीघाटी
महाराणा प्रताप और हल्दीघाटी की बात हो……..
तो हाकिम खां सूर के बगैर पूरी न होगी। शेरशाह सूरी का पोता, जिसे खुद भी अकबर से पानीपत की दूसरी लड़ाई का बदला लेना था, जब सुना कि राजपूतों में अकेले, महाराणा ने ही सर उठाकर जीने का संकल्प लिया है, आ पहुचा कुंभलगढ़।
उसके साथ हजार से अधिक पश्तून लड़ाके थे, तोपें और तोपची थे, घुड़सवार थे। सारे राजपूताने में अकेले पड़ चुके महाराणा को, मदद देने ये पठान खुद आया, तो राणा ने भी गले लगाया। राणा के पास पैदल और घुड़सवारों की फौज थी। कुशल तोपची एडेड एडवांटेज था। मुगलिया तौर तरीकों से परिचित भी।
राणा ने हाकिम खां को अपनी सेनाओं का कमांडर इन चीफ नियुक्त किया।
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हल्दीघाटी, मौजूदा हिन्दू-मुस्लिम विमर्श के बीच एक अनोखा युद्ध है। मुसलमान राजा, अकबर की फौज हल्दीघाटी के रास्ते राणा को कुचलने जा रही थी। उसका सेनापति- एक हिन्दू, मानसिंह हिन्दू राणा अपनी आजादी बचाने को आगे बढ़ा। ये जीवन मरण की लड़ाई थी।
उसका सेनापति – एक पठान, हकीम खान सूर।
गजबे है !!!
इतिहासकारों के अनुसार राणा के आदेश पर तीसरे धावे में हकीम खां सूर खुद घाटी की तली में उतरा। उसका वादा था, उसके जीते जी अकबर की फौज हल्दीघाटी पार नही कर सकेगी। वादा पूरा किया। घोर युध्द के बाद मारा गया।
आख्यानकों के अनुसार सर कट जाने के बाद भी उसका धड़ लड़ता रहा। और उसका शरीर मुख्य युद्ध स्थल से पांच
किलोमीटर दूर जाकर घोड़े से गिरा। सर एक जगह दफन हुआ, धड़ दूसरी जगह। आख्यान कहते हैं कि मौत के बाद भी तलवार उसने इतनी मजबूती से जकड़ रखी थी, कि छुड़ाया न जा सका और धड़ तलवार के साथ ही दफन हुआ।
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हकीम खां सूर राजस्थान और मेवाड़ के इलाके में जाना पहचाना नाम है। राणा के आख्यानकों में उसका बड़ा स्थान है। महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन आज भी हर साल राष्ट्रीय एकता के लिए काम करने वालों को हकीम खां सूर अवार्ड देता है।