एनालिसिस

साहूकारों और बैंकों की दु​रभिसन्धि तो नहीं

वैसे तो जबसे जीएसटी लागू हुआ है, इन बड़े-बड़े रियल इस्टेट व्यापारियों की ही कमर टूट गई है। इस सेक्टर में गजब की मन्दी है। इसलिए वर्तमान में तो मजदूर शहर से गॉंव की ओर भाग रहा है। जीएसटी कई लिहाज से अच्छा कदम है लेकिन बहुतेरे व्यापारियों को यह समझ में नहीं आ रहा,क्योंकि यह वैट की तरह नहीं है कि वसूलो और जेब में रख लो। फिर भी बहुत से व्यापारियों ने इसकी भी काट निकाल ली है।
जीएसटी के लिए दो—दो कम्प्यूटर रख लिए हैं। दिनभर कम्प्यूटर से निकलने वाली इनवाइस नकली होती हैं। दूसरे से कुछ असली निकाली जाती हैं। ऐसा उन ग्राहकों के साथ होता है, जिनके पास जीएसटी नं0 नहीं है। है भी तो वे किसी कस्टमर का जीएसटी नं0 लेते ही नहीं। कहते हैं, हमारे साफ्टवेयर में केवल हमारा ही जीएसटी नं0 आता है। हम आपका नं0 अंकित नहीं कर सकते।
वैसे तो आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि निम्न आय वर्ग वाले व्यक्तियों का महाजनों के जाल में फंसने के पीछे गॉंवों तक बैंकिंग व्यवस्था का नहीं पहुंचना एक विशेष कारण है। पिछले 70 सालों के बाद अब उन्हें यह समस्या पता लगी है। लेकिन इस विश्लेषक का ऐसा मानना है कि यदि ऐसा है, तो इसके लिए उत्तरदायी कौन है?
दूसरी बात, जिन जगहों पर बैंकों का जाल बिछा हुआ है वहां के लोग भी कैसे साहूकारों के जाल में फंसे हुए हैं। जिन गॉंवों में सहकारी तथा ग्रामीण बैंक की शाखायें हैं वहां भी आम आदमी के लिए कर्ज पाना आसान क्यों नहीं है। इन बैंकों के लोन देने के नियम इतने सख्त हैं कि जबतक ये बैंक स्वंय किसी को लोन देना न चाहें, ग्राहक कितनी ही आर्हता पूरी क्यों न करता हो उसे लोन मिल ही नहीं सकता है।         ……………जारी

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