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जजों की नियुक्ति पर नियंत्रण किसका हो ?

भारत के मुख्य न्यायाधीष डी0वाई0 चन्द्रचूड का कहना है कि इस बात को लेकर लगातार खींचतान बनी रहती है कि जजों की नियुक्ति पर नियंत्रण किसका हो। यहां तक कि पद खाली होने पर भी और नियुक्तियों को लम्बे समय तक लंबित रखा जाता है।

एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि देश में ट्रिब्यूनल, अदालतों में देरी को रोकने और न्याय दिलाने में बेहद अहम भूमिका निभाते हैं। सीजेआई ने कहा कि ट्रिब्यूनल्स का एक उद्देश्य हमारी अदालतों में मामलों की देरी से निपटना था और यह आशा की गई थी कि ये ट्रिब्यूनल, जो साक्ष्य और प्रक्रिया के सख्त नियमों से बंधे नहीं हैं, अदालतों के बोझ को कम करने में मदद करेंगे और न्याय प्रदान करने में सहायक होंगे।

सीजेआई ने कहा क्योंकि आपको जज नहीं मिलते हैं, जब आपको जज नहीं मिलते हैं, तो खाली पद सामने आते हैॅं, जिन्हें लम्बे समय तक लंबित रखा जाता है और फिर यह लगातार झगड़ा होता है कि जजों की नियुक्ति पर अंतिम निर्णय किसे मिलेगा।

उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में एक गवर्नेंस की संस्कृति है, जहां सरकार ने सफलता पूर्वक न्यायपालिका को अकेला छोड़ दिया है। वे जजों के काम से छेड़छाड़ नहीं करते हैं, वे उन परिणामें को स्वीकार करते हैं जो अनुकूल हैं या प्रतिकूल हैं, क्योंकि यही महाराष्ट्र की संस्कृति है।

उन्होंने यह भी कहा कि तकनीक न्याय तक पहुंचने का माध्यम नहीं बन सकती, अदालतों तक लोगों की पहुंच को कभी भी कम नहीं किया जा सकता। चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि एक रिर्पोट के अनुसार जिला न्यायलयों में 25,081 जजों के स्वीकृत पदों के सापेक्ष 4051 अदालत कक्षों की कमी है।

नोटः

यह बहुत बड़ा मुदृदा है कि जजों की नियुक्ति पर नियंत्रण किसका हो।
दरअसल सत्ताधीषों ने कार्यपालिका, विधायिका के साथ न्यायपालिका और पत्रकारिता को भी चौथा खम्भा बताकर चार खम्भों पर टिकने वाली व्यवस्था बनाई, लेकिन उसके मन में न्यायपालिका और पत्रकारिता की कोई जरूरत नहीं थी।
न्यायपालिका को तो उसने इसलिए संवैधानिकता प्रदान की क्योंकि उसे जनता को यह विश्वास दिलाना था कि हमने तुम्हारे लिए न्याय की व्यवस्था की है और यदि कार्यपालिका के एक्शन से आप संतुष्ट नहीं हैं तो न्यायपालिका में जा सकते हैं।
इसलिए उसने जिले से लेकर राष्ट्ीय स्तर तक पर न्यायलयों की व्यवस्था की। वरना ये काम वो जिला मजिस्ट्रेटों से करवा सकती थी। बहुत से मामलों में अब भी एसडीएम, डीएम और कमिश्नर तक के न्यायालय लगते हैं।
सरकार ने जनता को टहलाने के लिए नीचे से उपर तक न्यायालयों की व्यवस्था की और उसमें हस्ताक्षेप ना के बराबर रखा। चौथे खम्भे को तो संविधान में कोई जगह ही नहीं दी और मौखिक जुबानी ही चौथे खम्भे का पुतला खड़ा कर दिया। चौथ खम्भे ने भी खूब मनमानी की, जिसका नतीजा सामने है।
जब इन दोंनों खम्भों की मजबूती से वो डरने लगी तो पूरे पत्रकारिता तंत्र को तो उसने बस में कर लिया, लेकिन संवैधानिक रूप से खड़ी न्यायपालिका को वो उस तरह से कंट्रोल नहीं कर पाई जैसे पत्रकारिता को कंट्रोल किया है।
अब चूंकि जजों की नियुक्ति का अधिकार उसके पास है, इसलिए इसी चाबुक से वो उन्हें भी कंट्रोल करना चाहती है। पूरा अधिकार उसके पास ना होने के कारण वो जजों की नियुक्ति, ट्रान्सफर और पोस्टिंग में विलम्ब ही नहीं करती है अपितु उन पत्रावलियों को दाबकर बैठ जाती है। कोलेजियम की सिफारिश से जज बनने वाले राह ही देखते रह जाते हैं।
सरकार जजों की नियुक्ति के अधिकार का अपना बिल भी लाई थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अमान्य करके कोलेजियम की व्यवस्था को ही मान्य बनाया।
दूसरी तरफ जजों की कोलेजियम  व्यवस्था भी न्यायिक नहीं है। कोई कैसे स्वंय की नियुक्ति कर सकता है? कैसे अपने कैडर की ट्रान्सफर पोस्टिंग कर सकता है। प्रथम दृष्टया ही यह अन्यायिक नजर आता है। लेकिन किसी भी गलत परम्परा की शुरूआत को रोकने के लिए कुछ तो करना ही था, सो सुप्रीम अदालत ने भी कोलेजियम की व्यवस्था कर ली।
अब वो समय आ गया है, जब इसका न्यायिक समाधान होना आवश्यक है।
इसके लिए एक कमेटी बननी चाहिए जिसमें लॉ मिनिस्टर, कैबिनेट सचिव, विपक्ष का नेता और  सुप्रीम कोर्ट के एक सीनियर जस्टिस हों तथा इस चार सदस्यीय कमेटी के अध्यक्ष चीफ जस्टिस हों।
वैसे इस समस्या का निदान तबतक नहीं हो सकता जबतक जजों की नियुक्ति का तरीका नहीं बदलता। इसके लिए अभी से उस व्यवस्था की आवश्यकता है, जिसे भारत की राष्ट्रपति महोदया ने बताया है कि देश को अखिल भारतीय न्याययिक सेवा की शुरूआत करने की जरूरत है।
यूपीएससी के तहत इस सेवा की शुरूआत की जाए एवं उन्हें आईएएस की भांति नियुक्ति प्रदान करके जिला न्यायलयों में एडीजे, डीजे फिर उच्च न्यायालय में पोस्ट करके सुप्रीम कोर्ट तक लाया जाए और इनका नियंत्रण सीजेआई को दिया जाए। इनकी ट्रान्सफर पोस्टिंग में किसी अन्य/सरकार का कोई दखल ना हो।

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