एनालिसिस
साहूकारों और बैंकों की दुरभिसन्धि तो नहीं
देश में बढ़ते शहरीकरण के कारण गॉंव-गॉंव में पैदा हो गये बिचौलिये गॉंव में आई दैवी आपदा यथा बाढ़, सूखा आदि के समय दम्पत्ति को दस-पन्द्रह हजार रुपये अग्रिम दे देते हैं। सितम्बर-अक्टूबर आते-आते उस दम्पत्ति को शहर ले जाते हैं और वहॉं साल-साल भर तक बिना वेतन के मजदूरी कराते हैं।
यह अलग बात है कि इस दौरान उन्हें साइट पर ही मुर्गी के दड़बेनुमा वाला अस्थायी आवास और खाने के लिए राशन, बिचौलिये द्वारा ही उपलब्ध कराया जाता है। ये भी पूंर्णरुप से बंधुआ मजदूरी का ही मामला है। लेकिन किस सरकार और किस विभाग की इस पर नजर पडी आजतक कभी दिखाई नहीं दिया।
ऐसे बंधुआ मजदूरों के बच्चों के भविष्य का अंदाजा बड़ी आसानी से समझ में आ सकता है। उस पर सोने पे सुहागा यह है कि इस देश में चाइल्ड लेबर एक्ट लागू है। इससे पहले ऐसे गरीब परिवार के जिन बच्चों को मजदूरी के अच्छे पैसे मिल जाते थे, वे अब चाइल्ड लेबर एक्ट को डील करने वाले अधिकारियों के डर से कम मजदूरी में ही कार्य करने को अभिशप्त हैं।
ऐसे कानून से केवल इसे लागू कराने वाले सरकारी अधिकारियों की ही मौज आई है। जिस गरीब के पास अपने परिवार को भोजन कराने के ही लाले पडे हुए हैं, वह अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ने स्कूल भेजे याकी मजदूरी कराकर पेट पाले! यह दर्द न तो अरूण जेटली के समझ में आ सकता है और ना ही मोदी जी के नीति आयोग एवं उनकी सरकार को।
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