देश को बर्बाद कर देगा निजीकरण
इसे महज नसीहत मत समझिए। इसके अंतस में निहित है, बेरोजगारी, महंगाई और बेबसी। इसकी परिणति है पीड़ा, संत्रणा और बेबसी। जो क्षेत्र निजी हाथों में गया उसकी अधोगति तय है। शिक्षा और स्वास्थ्य इसकी नजीर है। निजी संस्थानों से बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल करने के बाद युवाओं को 10 से 15 हजार रुपये महीने की नौकरी बमुश्किल से नसीब हो पाती है।
कुछ संस्थानों का प्लेसमेंट सन्तोषजनक है तो वहां की फीस देना मध्यम वर्ग के बस की बात नहीं। बच्चों की पढ़ाई में आम इंसान कर्ज से डूबा है। कमोबेश यही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का है। बीमारी भले बख्श दे इलाज तो मरीज और परिवार दोनों की जान निकाल लेता है। मामूली बीमारी के इलाज पर बिल का मीटर 10 हजार के पार।
अब सरकार हर क्षेत्र का निजीकरण करने पर उतारू है, तो यकीन मानिए यह सरकार की विफलता है। अगर कोई क्षेत्र घाटे में है तो कारोबारी क्यों खरीदेगा, अगर फायदे में है तो निजीकरण की क्या आवश्यकता। इस सवाल के जवाब से सरकार बचती आ रही है।
कुतर्कों का जवाब
तमाम चमचे टाइप लोग निजीकरण के फायदे गिनाने लगेंगे। उनकी दलील है इससे सेवाओं में सुधार होगा। विकसित देश इसकी नजीर हैं। तो भाई पहले वह आधारभूत ढांचा तो विकसित हो। अगर बिना नींव के बहुमंजिला इमारत का निर्माण किया जायेगा तो उसका ढहना तय है।
एक भक्त ने कहा अफसर अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में क्यों नहीं पढ़ाते। तो जवाब यही है कि सरकारी संस्थाओं में मूलभूत सुविधाएं तक नहीं हैं। अफसर, सरकारी शिक्षक की योग्यता पर सवाल कभी नहीं खड़े करते, क्योंकि उन्हें पता है कि इनका चयन प्रतियोगी परीक्षाओं से हुआ है।
काबिलियत में निजी संस्थानों की फैकल्टी सरकारी के सामने कहीं नहीं ठहरती। पर रोना उन सुविधाओं का। दरअसल, सरकारों ने शिक्षा का निजीकरण कर गरीब और अमीर के स्कूल का विभाजन दशकों पहले कर दिया था। सरकारी स्कूलों में दाखिला ही पिछड़े बच्चों का हो पा रहा है, मगर इसके बाद भी उसकी चमक बरकरार है।
सरकारी मेडिकल कॉलेज, आईआईटी, आईआईएम इसकी नजीर हैं। जरूरत सरकारी संस्थानों की दशा सुधारने की है। सरकार वह करने की बजाए उन्हें ही खत्म करने की योजना में लगी है। यह तो वही हाल हुआ कि हाथ में कांटा चुभा तो उसे निकालने की बजाय हाथ ही काट दिया।
निजीकरण का दर्द
यह पीड़ा केवल निजी क्षेत्र का नौकरी पेशा समझ सकता है। निजीकरण का सबसे ज्यादा दंश यही वर्ग भुगतता है। नौकरी पर हमेशा संकट के बादल। पदोन्नति और वेतनवृद्धि बॉस नाम की संस्था पर निर्भर। यहां परिक्रमा का मोल है पराक्रम हमेशा पस्त होता है। लॉक डाउन में सर्वाधिक नौकरियां इसी क्षेत्र की गईं पर सरकार मौन रही।
विपक्ष का यक कहना गलत नहीं होगा कि सही मायने में सरकार तो कॉरपोरेट घराने चला रहे हैं। जब उन्हें घाटा हुआ तो क्षतिपूर्ति सरकार करे। लोन लेकर डकार जाएं तो भी कुछ नहीं होने वाला। सारे नियम-कानून मध्यम वर्ग झेले। रेलवे न केवल परिवहन का साधन है बल्कि रोजगार का माध्यम भी। इसके निजी क्षेत्र में जाने से सुगम और सस्ते परिवहन की न केवल राह बन्द होगी बल्कि लाखों नौकरियां भी समाप्त होंगी क्या हो रही हैं।
निजीकरण की व्याधियां
साल दर साल महंगाई बढ़ रही है पर नौकरीपेशा की आमदनी घट रही है। वेतन वृद्धि की बजाय कटौती और नौकरी बचाने की जद्दोजहद जारी है। नौकरियों के अवसर सीमित किये जा रहे हैं।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
सरकार कमोबेश इसी राह पर चल रही है। अपने वेतन, भत्तों, सुविधाओं और सुरक्षा पर कोई कटौती नहीं, सारी भरपाई जनता से। देश हित में अपनी पेंशन बन्द करने पर कभी चर्चा तक नहीं की, जबकि महज पांच साल के लिए चयन होता है पर जिंदगी भर विभाग की सेवा करने वालों की पेंशन जरूर छीन ली।
इसके बाद भी सरकार का दावा सबका साथ, सबका विकास। सरकार से जनता को बहुत उम्मीदें हैं, शायद इसीलिए उसने सुखद वर्तमान की चाह में अतीत बदला। इतनी त्रासदी झेलने के बाद भी सवाल नहीं खड़े किये तो यकीन मानिए उन्हें बदलाव की उम्मीद है। अगर वर्तमान ने ध्यान नहीं दिया तो न केवल करोड़ों लोगों की उम्मीदें टूटेंगी बल्कि सरकार से लोगों का भरोसा उठ जाएगा।
Courtesy by: Manikant Shukla’s Wall