पंचतंत्र
PanchTantra-टका नहीं तो टकटका भाग-5
वर्धमान रक्षकों की स्वामीभक्ति पर गदगद हो गया। उसने अपने बैल की आत्मा की तृप्ति के लिए पिंडदान किया और एक सांड़ छोड़ा। इधर यमुना के कछार की भीनी-भीनी ठंडी हवा के स्पर्श से संजीवक को कुछ ताजगी सी अनुभव हुई। वह जैसे-तैसे लडख़ड़ाता-संभलता उठा और यमुना के तट की ओर रवाना हुआ। वहां हरी-हरी मुलायम घास उगी हुई थी।
दूर से देखो तो लगे मरकत मणि बिखरी पड़ी है। घास चरते और बिना बोझ-पगहा के मटरगशती करते हुए वह कुछ ही समय में इतना मोटा तगड़ा हो गया कि देख कर यह कहा भी नहीं जा सकता था कि यह वही संजीवक है जो कभी गाड़ी के नीचे दबा हुआ, नथने फड़काता और झाग गिराता हुआ चलता था।
और जिसकी एक टांग टूट गई थी। उसे अब ऐसी मस्ती छाने लगी कि और कुछ न पाकर वह कछार में बनी दीमकों की बांबियों को ही सींग से ढ़हाता, माथा रगड़ता, दहाड़ता रहता था। कहते हैैं, जाको राखे साइयां मारि सकै ना कोय। बाल न बांका करि सकै जो जग बैरी होय।
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