साइबर संवाद

कोविड तो बहाना है मीडिया को दबाना है

देश की सभी राज्य सरकारें और केंद्र की सरकार ने महामारी एक्ट के बहाने पत्रकार उत्पीड़न का नंगा नाच आरंभ कर दिया है। सत्ता के सामने नतमस्तक हुए मेन स्ट्रीम मीडिया ने इस ओर से अपना ध्यान पूरी तरह से हटा रखा है। सच तो यह है कि कांग्रेस ने घोषित आपातकाल लागू किया था, हालांकि इंदिरा गांधी ने इसके लिए देश से क्षमा भी मांग ली थी लेकिन मौजूदा सरकार अघोषित आपातकाल लागू कर चुकी है।

मीडिया में जो बचे खुचे रीढ़धारी पत्रकार शेष हैं, उनकी गर्दन पर सरकार की तलवारें हैं। राजनैतिक नेतृत्व की हालत यह हो चली है कि वह अपने खिलाफ एक भी आवाज़ सुनने को तैयार नहीं है। आज PRESS CLUB OF INDIA, NEW DELHI के तमाम साथी सड़क पर उतरे और उन्होंने एम्स में एक पत्रकार तरूण की तथाकथित आत्महत्या पर जोरदार विरोध किया। कम से कम कहीं से एक विरोध का स्वर फूटा तो, वरना मीडिया के साथियों ने अब अपने ही उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ आवाज तक उठानी बंद कर दी है।

‘गेटिंग अवे विद मर्डर’ नाम से एक अध्ययन हुआ था जिसके अनुसार वर्ष 2014 से 2019 के मध्य देश में 40 पत्रकारों की मौत हुई। इनमें से 21 पत्रकारों की हत्या की वजह का कारण यह रहा कि उन्होंने ईमानदारी से बाहुबलियों व नेताओं के खिलाफ बोलने व लिखने की हिमाकत की थी। बीते पांच सालों में भारत में पत्रकारों पर 200 से अधिक गंभीर हमले हुए हैं। 2011 में पत्रकार जे.डी. 2012 में राजेश मिश्रा, वर्ष 2014 में पत्रकार तरुण आचार्य की हत्या हुई। यह चर्चित पत्रकार थे और अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते थे।

पत्रकारों पर किसी एक चेहरे ने हमला नहीं किया है बल्कि इन हत्याओं व हमलों में सरकारी एजेंसियां, सुरक्षाबल, नेता, धार्मिक गुरु, छात्र संगठनों के नेता, आपराधिक गैंग से जुड़े लोग और स्थानीय माफिया शामिल हैं।

उक्त अध्ययन का यह सच मन को और भी ठेस पहुंचाता है कि 2014 के बाद से अब तक भारत में जितने भी पत्रकारों पर हमले हुए उनमें से किसी भी आरोपी को आज तक दोषी नहीं ठहराया जा सका है। अध्ययन के अनुसार, पुलिस पत्रकारों की हत्या के लिए खुद पत्रकार या उसके परिवार व सहयोगियों के आरोप को झुठला कर केस को डायवर्ट कर देती है।

यह रिसर्च यह भी बताती है कि विगत कुछ समय में फील्ड रिपोर्टिंग करने वाली महिला पत्रकारों पर हमले भी तेजी से बढ़े हैं। सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को कवर करने वाली महिला पत्रकारों पर जिस तरह से हमले हुए और उनके साथ शारीरिक अभद्रता हुई वह शर्मनाक है। इस अध्ययन के अनुसार 2014 से लेकर अब तक 19 महिला पत्रकारों पर हमले किए जा चुके हैं। यह तो वह संख्या है जो रिपोर्टेड है।

उक्त अध्ययन के अनुसार मीडिया के भीतर बढ़ रहा ध्रुवीकरण भी चिंता का एक बड़ा कारण है। राजनीतिक दलों द्वारा चलाए जा रहे या इनके करीबी मीडिया संस्थानों का रुख बहुत ही स्पष्ट होता है, जो भारत में पत्रकारों पर हमले में बड़ी भूमिका निभाता है। बेंगलुरू में संपादक गौरी लंकेश, श्रीनगर में शुजात बुखारी की हत्या और छत्तीसगढ़ में सुरक्षाबलों पर माओवादियों के हमले में दूरदर्शन के कैमरापर्सन अच्युतानंद साहू… ऐसे दर्जनों मामले हैं।

उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में रेत माफिया, अवैध शराब के तस्कर, भूमाफिया, जल माफियाओं द्वारा सबसे ज्यादा हमले किए गये हैं। नागरिकता कानून और एनआरसी के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के मद्देनजर सरकारों ने भी जिस तरह से पत्रकारों पर ताजा हमले किए और उन पर मुकदमें लादे हैं,वह शर्मनाक है।

कुछ दिनों पहले ही यूनेस्को ने एक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट के अनुसार बीते दो सालों में 55 फीसदी पत्रकारों की हत्या वहां हुई हैं जहां न कोई युद्ध था न दंगा बल्कि राजनीति, अपराध और भ्रष्टाचार पर रिपोर्टिंग करने के कारण पत्रकार मारे गये। यूनेस्को के अनुसार, 2006 से 2018 तक दुनिया भर में 1,109 पत्रकारों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार लोगों में से करीब 90 फीसदी को दोषी करार नहीं दिया गया।

भारत में तो पत्रकारों के लिए स्थिति लगातार खतरनाक और दुरूह होती जा रही है‌। हालात यह हो चले हैं कि सरकारें अपने खिलाफ एक ट्वीट या पोस्ट तक पढ़ने को बर्दाश्त नहीं कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में पत्रकारों और उनकी स्थिति को लेकर चौतरफा चर्चा है। पत्रकारों के उत्पीड़न से जुड़ी खबरें थमने का नाम नहीं ले रही हैं।

पत्रकारों को लेकर चल रही ये बहस कितनी तेज है इसे हम NCRB की उस रिपोर्ट से भी समझ सकते हैं जो लोकसभा में पेश हुई है। रिपोर्ट में पत्रकारों के साथ हुई हिंसा और मारपीट का जिक्र है और बताया गया है कि अब तक देश में पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले उत्तर प्रदेश में हुए है। 2013 से लेकर अब तक उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर हुए हमले के सन्दर्भ में 67 केस दर्ज किया गए हैं।

50 मामलों के साथ मध्य प्रदेश दूसरे नंबर पर है। जबकि 22 मामलों के साथ बिहार नंबर 3 पर है। रिपोर्ट में यूपी को पत्रकारों के लिहाज से सबसे असुरक्षित कहा गया है और ये भी बताया गया है कि सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही 2013 से लेकर 2019 तक 7 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है।

पत्रकारों पर हमलों के सन्दर्भ में जो रिपोर्ट लोकसभा में भी पेश हुई है लेकिन दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि उस पर गंभीरता से किसी ने भी चर्चा नहीं की।

अब आइए यूपी..

स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी और शामली में एक निजी चैनल के पत्रकार के साथ हुई मारपीट की घटना सामने है और इन दोनों घटनाओं में कुछ नहीं हुआ। एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि पत्रकारों पर हमले के 2014 में 63, 2015 में 1 और 2016 में 3 मामले दर्ज हैं और 2014 में 4, 2015 में शून्य और 2016 में मात्र 3 लोग गिरफ्तार किए गए। द इंडियन फ्रीडम रिपोर्ट के अनुसार 2017 में पत्रकारों पर 13 हमले पुलिसवालों ने किए। 10 हमले नेताओं व उनके चेलों ने और 6 हमले अज्ञात अपराधियों ने किए।

पत्रकारों पर हुए हमलों के सन्दर्भ में NCRB की रिपोर्ट भी पढ़ लें। नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा करते हैं। घोषणा के दो दिन बाद यानी, 26 मार्च,2020 को जनसंदेश टाइम्स ने एक समाचार प्रकाशित किया। खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में एक जनजाति के पास खाने के लिए अनाज नहीं था, लॉकडाउन की अचानक घोषणा होने के बाद बच्चे घास खा कर पेट भर रहे थे।

यह खबर वाराणसी के जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा को बुरी लगी। उन्होंने अखबार को एक कानूनी नोटिस भेज दिया। रिपोर्ट को झूठा बताया गया। अखबार से 24 घंटे के भीतर माफी मांगने को कहा गया। प्रशासन ने धमकी दी कि ऐसा नहीं हुआ तो पत्रकार विजय विनीत व प्रधान संपादक सुभाष राय के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी। उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद से पूरे प्रदेश में दर्जनों पत्रकारों पर प्रशासन व सत्ता की शह पर मुकदमें ठोंके गए हैं।

मशहूर वेबसाइट द वायर के संपादक, सिद्धार्थ वरदराजन ने न्यूयॉर्क टाइम्स में 21 अप्रैल को लिखा, “देशव्यापी तालाबंदी एकदम सही वक्त है जब लोकतांत्रिक परिवेश में काम कर रहे पत्रकारों को आधी रात को उनके घरों के दरवाज़ों पर होने वाली दस्तक के भय से मुक्त होकर लिखने और पत्रकारिता करने के लिये स्वतंत्र होना चाहिये।

वरदराजन को सरकार के काम-काज पर टिप्पणी करने के कारण तमाम मानहानि के मुकदमों व आपराधिक शिकायतों में नामजद किया गया है। हाल ही में एक मामला वरदराजन पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आलोचना करने के कारण भी दर्ज कराया जा चुका है। आज़मगढ़ के जिला प्रशासन ने भी जनसंदेश टाइम्स के पत्रकार संतोष जायसवाल को विगत वर्ष 7 सितम्बर को एक सही खबर लिखने के कारण नामजद करवा दिया।

जयसवाल ने खबर लिखी थी कि एक प्राथमिक विद्यालय में बच्चों से जबरदस्ती विद्यालय की सफाई करवाई जाती है। इस खबर पर ही उसे गिरफ्तार कर लिया गया। मीरजापुर के पत्रकार पवन जायसवाल के साथ भी यही हुआ। 31 अगस्त,2019 को आपराधिक साजिश करने के आरोप में उन्हें नामजद किया गया। पवन जायसवाल ने एक खबर लिखी, यहां के एक सरकारी विद्यालय द्वारा सरकार के न्यूनतम मानकों से काफी निम्न स्तर का भोजन विद्यार्थियों को दिया जा रहा था। इस खबर के बाद राज्य सरकार ने तीन महीनों तक समाचार पत्र के सभी सरकारी विज्ञापनों के प्रकाशन पर रोक लगा दी थी।

राज्य के तमाम पत्रकारों का मानना है कि राज्य व केंद्र की सरकार औपनिवेशिक काल में बने महामारी रोग अधिनियम का बेजा इस्तेमाल कर रही हैं। इस अधिनियम को केंद्र सरकार ने 11 मार्च,2020 को लागू किया और राज्य सरकारों को यह अधिकार दे दिया कि यदि कोई गलत सूचना फैलाई जाती है तो मीडिया को दंडित किया जाए।

विगत 26 मार्च, 2020 को एक टीवी समाचार चैनल की बाइट में वाराणसी के जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा ने सरेआम मीडिया को धमकी दी। 8 जून,2020 को नेशन लाइव टीवी न्यूज चैनल के पत्रकारों व एक स्वतंत्र पत्रकार की गिरफ्तारी से सबंधित एक मामला भी चर्चा में रहा है। इन सभी पत्रकारों पर फर्जी आरोप लगाए गये कि उनकी मंशा हिंसा भड़काने व मुख्यमंत्री को बदनाम करने की थी। हालांकि ये सभी पत्रकार अब जमानत पर रिहा हो चुके हैं। लेकिन दुख इस बात का है कि उक्त समाचार चैनल को कथित रूप से संचालन के लिये बंद कर दिया गया।

11 जून को रेलवे पुलिस ने शामली जिले में एक निजी समाचार चैनल न्यूज़ 24 से सबंधित एक पत्रकार को दो घंटे तक हिरासत में रखा। उसे पीटा और नंगा कर दिया। जब इससे भी मन नहीं भरा तो उसके मुंह पर पेशाब किया गया। हालांकि इस मामले में प्रदेश सरकार ने सभी पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया और चार के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया गया, सरकार का ये कदम भी सराहनीय ही कहा जायेगा।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में बनारस में स्वतन्त्र चेतना समाचार पत्र में फोटो पत्रकार बच्चा गुप्ता को नवम्बर,2019 में आपराधिक षडयंत्र करने के मामले में पुलिस ने फंसा दिया। यह मामला इसलिए दर्ज हुआ क्योंकि उन्होंने गंगा तट पर जल पुलिस थाने में बच्चों द्वारा सफाई करवाये जाने की तस्वीरें खींच ली थी। एक अन्य मामले में दैनिक भास्कर के पत्रकार आकाश यादव ने वाराणसी में पुलिस पर स्थानीय अस्पताल माफिया के साथ खेल करने का आरोप लगाया।

समाचार छपा तो उन्हें व पांच अन्य पत्रकारों पर लूट और यौन उत्पीड़न का आरोप लगा कर पुलिस ने केस दर्ज कर लिया। एक अन्य मामले में मीरजापुर जिले में हिंदुस्तान अख़बार में कार्यरत एक पत्रकार कृष्ण कुमार सिंह पर सितम्बर, 2019 में स्थानीय भीड़ द्वारा जानलेवा हमला किया। उन्होंने पार्किंग माफिया पर रिपोर्टिंग की थी।

उक्त स्थानीय पार्किंग माफिया को स्थानीय राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त था और पुलिस मिली हुई थी। जब बहुत दबाव पड़ा तो पुलिस ने छह घंटे बाद केस दर्ज किया। सोनभद्र जनपद के स्थानीय समाचार पत्र “परफेक्ट मिशन” के पत्रकार मनोज कुमार सोनी के ऊपर भी 4 नवम्बर, 2020 को छह व्यक्तियों ने लोहे की रॉड से हमला किया। गंभीर चोट लगीं। यह हमला स्थानीय भू-माफिया के इशारे पर हुआ।
इससेे पहले भी उन पर 2018 में हमला हुआ था लेकिन पुलिस ने कुछ नहीं किया।

दूसरी बार हमला हुआ तो वह एक महीने तक अस्पताल में भर्ती रहे। एक पत्रकार राजेश मिश्रा की हत्या 2017 में हो जाती है। योगी आदित्यनाथ के सत्ता में आने के कुछ महीने बाद ही यह घटना होती है, लेकिन अब तक इस मामले में मुक़दमा भी शुरू नहीं हुआ है। आजकल हालात यह हो चले हैं कि उत्तर प्रदेश में पुलिस छोटे-छोटे मामलों में भी पत्रकारों के खिलाफ केस दर्ज कर रही है। अगर लोकतंत्र का यही चेहरा बन रहा है तो यह स्थिति बहुत ही भयावह है।

पत्रकार पवन कुमार सिंह की वॉल से

(National Herald, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara,
Hindustan में बतौर संवाददाता कार्य कर चुके एवं Outlook के
कॉपी एडीटर रहे श्री सिंह एक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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