फ्लैश न्यूजसाइबर संवाद
पढ़ेंगे ना पढ़ायेंगे प्रोफेसर कहलायेंगे
मैंने जब पढ़ाना शुरू किया तो ये दोनों आलोचक-इतिहासकार सामने थे और अन्य विदेशी विद्वानों के पढ़ाने की पद्धति भी सामने थी, संयोग की बात है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में पत्रकारिता का एक पेपर पाठ्यक्रम में शामिल किया गया, ये मुझे पढ़ाने को मिला, साथ में दूरदर्शन और विज्ञापनों को भी पढ़ाना था।
मैंने सिलसिलेबार ढ़ंग से इन पर पढाया और अकादमिक स्तर के नोट्स भी तैयार किए जिनको मूलतः कक्षा में व्याख्यान के रूप में तैयार किया गया था। इस क्रम में मेरी अनेक किताबें कक्षा में पढ़ाने के क्रम में पैदा हुईं। इनमें पहली किताब दूरदर्शन और सामाजिक विकास के नाम से आई, दूसरी किताब हिंदी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका, तीसरी किताब जनमाध्यम और मासकल्चर के नाम से आई, ये तीनों किताबें मूलतः कक्षा में पढाए गए व्याख्यानों पर ही आधारित हैं।
दिलचस्प बात यह कि जब भी पाठ्यक्रम में नए परिवर्तन हुए मुझे हमेशा नए विषय पढ़ाने को मिले और फिर हर बार नए विषय पर पढ़ने-पढ़ाने और लिखने का मौका। कहने का आशय यह कि हमारे प्रोफेसर यदि कक्षा में मेहनत करें, हर साल नई खोज करें, नई सामग्री दें तो अकादमिक जगत का माहौल पूरी तरह बदल जाए।
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