विविध

मेहबूबा-मुफ्त का खाके पगला गई हैं

हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों के खून पसीने की कमाई खा-खा कर जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के देशद्रोही बोल ‘अगर संविधान के अनुच्छेद 370 और 35-ए से छेड़छाड़ की गई तो कश्मीर में तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा। लगता है मुफ्त का खाके मेहबूबा पागलों की तरह बर्ताव करने लगी हैं। 
वो शायद भूल रही हैं कि तिरंगा वो झंडा है जो उनकी मृत्यु पर उनको भी नसीब नहीं होगा। उनको पता नहीं कि तिरंगा नसीब वाले लोगों को ही नसीब होता है, किसी ऐरे गैरे को नहीं और महबूबा मुफ्ती इसी कैटेगरी मैं आती हैं।
mehbooba mufti
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जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा का एक फलसफिया बयान है कि ‘आप किसी विचार को कैद नहीं कर सकते। आप किसी विचार को मार नहीं सकते।
इसका अहसास उन्हें शायद तब हुआ जब राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी NIA हुर्रियत के सात लोगों को गिरफ्तार कर दिल्ली ले आई और सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में आतंकियों के मारे जाने का सिलसिला तेज हो गया।
एनआइए की कार्रवाई से ठीक एक दिन पहले 28 जुलाई को नई दिल्ली की एक संगोष्ठी में उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा था, गौरतलब है कि इससे पहले 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 35-ए को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के लिए विशेष पीठ का गठन किया गया था।

मेहबूबा

नए राष्ट्रपति के शपथ ग्र्रहण समारोह में शिरकत करने के तुरंत बाद मेहबूबा ने आतंकियों के कृत्यों को जस्टिफाय करने के लिए उक्त विचार रखे। आखिर ऐसा क्यों है कि जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती देशद्रोही बयान देने के बावजूद अपने पद पर काबिज हैं?
सवाल यह भी है कि उनको सत्ता में बनाये रखना भाजपा की कौन सी मजबूरी है कि वह उन्हें ढोये चले जा रही है? भले ही महबूबा के करतब नए हों, लेकिन ऐसे तुर्रे छेड़ने की उनकी आदत खासी पुरानी है।
इसी साल 17 मार्च को मेहबूबा ने कहा था कि राज्य के कुछ हिस्सों से अफस्पा कानून को हटा देना चाहिए। उन्होंने यह बयान तब दिया था जब सुरक्षा बलों की आतंकियों से मुठभेड़ आम हो चली थी।
इन मुठभेड़ों के दौरान सुरक्षा बलों पर पत्थरबाज छोड़ दिए जाते थे। अब तो जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती विदेश नीति में भी खासी दिलचस्पी दिखा रही हैं।
18 मार्च को मुंबई में मोदी सरकार को एक बिन मांगी सलाह देते हुए उन्होंने कहा था कि भारत को चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी से जुड़ जाना चाहिए, क्योंकि इससे कश्मीर का मध्य एशिया के साथ जुड़ाव काफी फायदेमंद साबित होगा।
उन्होंने ऐसा कहने से पहले इस परियोजना के विरोध में भारत सरकार की उस घोषित नीति का भी लिहाज नहीं किया जिसके तहत उसे गुलाम कश्मीर में चीन के दखल को औपचारिक और स्थाई बताते हुए खारिज किया गया था।
मुख्य विपक्षी-दल कांग्रेस तो छोड़िए, अमूमन चीन की ओर झुकाव रखने वाले वामपंथी भी ऐसा कहने का दुस्साहस नहीं करते, लेकिन भाजपा के समर्थन से सरकार चला रहीं महबूबा आए दिन उसे मुंह चिढ़ाते हुए लक्ष्मण रेखा लांघ रही हैंI
और भाजपाई मजबूरन धृतराष्ट्रवादी बनने को मजबूर हैं। अगर भाजपा की विवशता को समझना है तो उस समझौते को देखना होगा जिसके आधार पर दोनों दलों का गठजोड़ टिका है।
जिन शर्तों पर यह सरकार बनी है उससे यही लगता है कि भाजपा ने पीडीपी के समक्ष समर्पण कर रखा है।
समझौते की एक शर्त यह है कि भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य के दर्जे सहित सभी कानूनों को यथावत रखा जाएगा।
तीन साल तक सुप्रीम कोर्ट में जवाब टालते हुए केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 35-ए पर अपना पक्ष रखने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि ‘यह अति संवेदनशील मामला है।’ दूसरी ओर महबूबा 35-ए को लेकर बेचैन क्या पागल सी दिख रही हैं।
इस मामले में दौड़ते दौड़ते उन्होंने फारूख अब्दुल्ला से भी मुलाकात कर डाली। गठबंधन की शर्तों में यह भी शामिल है कि केंद्र सरकार कश्मीर में हालात की पुन: समीक्षा कर उसे अपीड़ित क्षेत्र घोषित कर अफस्पा की आवश्यकता पर पुनर्विचार करे। ‘
राजनीतिक पहल’ के तहत पाकिस्तान से बातचीत शुरू करना और रिश्ते सुधारने की भी बात है। लगता है कि यही वजह रही कि भारत ने पाकिस्तान के साथ अपनी ओर से जो वार्ता बंद की उसी को प्रधानमंत्री ने अपमान का घूंट पीकर 23 फरवरी, 2015 को स्वयं शुरू किया।
आज कोई और नहीं, बल्कि मेहबूबा ही पाकिस्तान से बातचीत शुरू करने के लिए लगातार दबाव बना रही हैं। विदेश नीति के मोर्चे पर शायद ही किसी मुख्यमंत्री ने सरकार की इतनी फजीहत की हो, जितनी महबूबा करती आ रही हैं।
बहरहाल इसके लिए मेहबूबा और उनकी पार्टी पीडीपी की पृष्ठभूमि को समझना बेहद जरूरी है। महबूबा के पिता और पार्टी के संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद खानदानी मुफ्ती यानी ‘मजहबी कानून’ के ज्ञाता थे।
उन्होंने कांग्र्रेस के साथ अपने सियासी सफर का आगाज किया फिर नेशनल कांफ्रेंस की लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए उन्हें जमात-ए-इस्लामी के नेतृत्व और संगठन की शरण में जाना पड़ा।
वहीं अलगाववाद के झंडाबरदार और हुर्रियत के सरगना सैयद अली शाह गिलानी(आतंकियों का साथ देने वाला देश का गद्दार नेता) के साथ उनके रिश्तों की बुनियाद पड़ी।
कांग्र्रेस की राजनीति करते हुए भी उनकी जहनियत पर इस्लाम का ही ज्यादा असर रहा। धयान रहे कि 1990 के विस्थापन से पहले घाटी के हिंदू समुदाय ने 1986 में अनंतनाग के दंगों की विभीषिका झेली थी।
उसमें हिंदुओं का बड़े पैमाने पर कतलेआम किया गया तथा जान-माल का नुकसान हुआ था। 40 से अधिक मंदिरों को लूटखसोट कर आग के हवाले कर दिया गया था। मुफ्ती के गृहनगर का यह तांडव मुफ्ती मोहम्मद सईद की शह पर ही हुआ था।
राज्य विधानसभा चुनाव के बाद मेहबूबा मुफ़्ती दिल्ली में थीं। एक मीडिया संस्थान के कार्यक्रम में उनसे जब पूछा गया कि चुनाव नतीजे 23 दिसंबर को ही आ गए तो नई सरकार के शपथ ग्र्रहण में एक मार्च तक की देरी क्यों हो गई?
तब महबूबा के मुंह से अनायास ही निकल आया कि हुर्रियत को मनाने में हफ्तों निकल गए। इससे जाहिर होता है कि उनके पिता ने शपथ लेते ही सबसे पहले हुर्रियत और पाकिस्तान को धन्यवाद क्यों दिया और वह भी प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी में।
यह भी समझ आता है कि गठबंधन की शर्तों में पाकिस्तान के साथ बातचीत की शर्तों पर इतना जोर क्यों है और इस पर भाजपा ने घुटने क्यों टेके? यह वही महबूबा हैं जिन्होंने 2008 में कांग्रेस के साथ अपनी ही गठबंधन सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था।
तब उन्हें श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन पर कड़ा एतराज था। जमीन 16 हजार फीट ऊंचाई पर यात्रियों के प्राथमिक उपचार और दूसरी बुनियादी सुविधाओं के लिए आवंटित की गई थी जिनके अभाव में कई वर्षों से तीर्थयात्रियों की मौत हो रही थी।
विरोध के पीछे उनकी दलील थी कि यह कश्मीर का जनसंख्या अनुपात बदलने की साजिश है, जबकि इतनी ऊंचाई पर आम इंसानी बसावट कोई आसान बात नहीं है।
यह भूमि भी अस्थाई निर्माण के लिए थी। जब राज्यपाल ने असहमति जताई तो राज्यपाल को ही बदल दिया गया और आवंटन रद कराया गया।
वर्ष 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी के एक कार्यक्रम में तत्कालीन रॉ प्रमुख एएस दुलत ने मंच पर महबूबा को जगह भी नहीं दी थी।
इसके पीछे वजह यही बताई गई कि भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने महबूबा की हिजबुल कमांडरों से नजदीकियां ताड़ ली थीं। अब उन्हीं महबूबा को यह मुगालता हो गया है कि कश्मीर में तिरंगा उनके हाथों का मोहताज बन गया है।
जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को पता नहीं कि तिरंगे की मोहताज़ मुफ़्ती हो सकती हैं तिरंगा नहीं अच्छा होता कि भाजपा उनसे यह कहे कि कश्मीर में तिरंगा उनसे पहले भी फहरता रहा है और उनके बाद भी बदस्तूर लहराता रहेगा।

सतीश प्रधान

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