पंचतंत्र

ढोल की पोल, पार्ट-2

गतांक से आगे पार्ट—2

इधर उसके चले जाने के बाद पिंगलक फिर इस चिंता में पड़ गया कि कहीं दमनक उसे विश्वास में ले कर उसके साथ धोखा न करे। उसे पछतावा इस बात पर हो रहा था कि दमनक का विश्वास करके उसने उससे अपने मन की बात बता दी। उसके मन में ऊभ-चूभ इसलिए मची हूई थी कि कहीं इतने समय तक अपना पैतृक पद न पा सकने और उपेक्षित रहने के बाद उसके मन में मैल न पैदा हो गया हो और मित्र बन कर वह उसका कबाड़ा न करना चाहता हो।

राजा को तो यूं भी किसी के ऊपर पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए। नीति कहती है कि राजा ने किसी को पहले आदर-मान दिया हो और बाद में उसकी ओर से मुंह फेर लिया हो तो, वे कितनी भी कुलीन हों, इसी जुगाड़ में रहेंगे कि किस तरह उसका भट्टा बैठाया जाए।

अब इससे निस्तार का एक ही उपाय समझ आ रहा था। जब तक यह पता नहीं चल जाता कि दमनक के मन में सचमुच क्या है तब तक वह वहां से कुछ हट कर उसकी राह देखे। कहीं वह उस भयानक जीव को पटा कर उसकी सहायता से मारना न चाहता हो!

उसने सोचा कि यदि कोई आदमी पूरी तरह किसी के कहने में न रहें तो वह कमजोर हो तो भी कोई उसका कुछ नहीं सकता। पर जहां किसी बलवान ने भी किसी पर आंख मूंद कर भरोसा किया, वहां उसे मरने से कोई बचा नहीं सकता।

कहते हैं कि जो व्यक्ति अपनी वृद्धि चाहता हो, अपने प्राण न गंवाना चाहता हो और सुखी रहना चाहता हो उसे बृहस्पति जैसे विवेकशील व्यक्ति पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। उसे यह वाक्य इस समय इतना सार्थक लगा कि इसे उसने एक बार संस्कृत में भी दुहरा दिया:
बृहस्पतेः अपि प्राज्ञो न विश्वास व्रजेत् नरः।

और, जहां तक शत्रु का प्रश्न है, वह तो यदि कसमें खा रहा हो, संधि कर चुका हो तो भी उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। राज्य के मोह में पड़े हुए बेचारे वृत्र के साथ इन्द्र जैसे देवता तक ने कसम खा कर, उसे विश्वास में ले कर, उसका वध कर दिया था।

सच तो यह है कि कोई शत्रु पर पूरा विश्वास न करे तो देवता भी उसे पराजित नहीं कर सकते पर विश्वास करने पर तो उसका नाश होना ही है। इंद्र ने दैत्यों की माता दिति को विश्वास में ले कर ही उसके गर्भ को अपने वज्र से छिन्न-भिन्न कर दिया था।

जब यह विचार उसके मन में पूरी तरह जम गया तो वह उस स्थान से हट कर कुछ दूरी पर जा कर, छिप कर, बैठ गया और वहीं से उसके लौटने की प्रतिक्षा करने लगा।……..पार्ट—3


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