Krantikari अमर शहीद भगत सिंह
Krantikari ने 10 मई 1857 को भारत में बिटिश शासन के खिलाफ क्रान्ति की पहली मशाल जलाई।
अच्छी प्लानिंग ना होने की वजह से विद्रोह को कुचल दिया गया।
फिर इसके 30 साल बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष करने के लिए एक संगठन तैयार किया गया।
काफी त्याग और बलिदान के बाद 90 साल बाद 1947 में भारत को आजादी मिली।
एक ओर जहॉं महात्मा गांधी ने अहिंसा का मार्ग अपना कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध कियाl
और आजादी की लड़ाई लड़ीए वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारियों ने देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।
हमें उन क्रान्तिकारियों को भूलना नहीं अपितु याद रखना चाहिएए जिन्होंने देश की आजादी के लिए नजीर पेश करते हुए अपनी कुर्बानी दी।
वैसे तो आजकल फिर से उन्हीं तरह के लोगों का जमाना चल रहा है, जिनके कारण देश परतंत्र हुआ था, लेकिन उसी के साथ देश को फिर से अपने ही लोगों से आजाद कराने का समय आ गया है।
इसी कड़ी में हम पेश कर रहे हैं, उन अमर शहीदों की कुर्बानी की कहानी।
Krantikari अमर शहीद भगत सिंह, एक जन्मजात शहीद के बारे में कुछ जानिये।
२३ मार्च, १९३१ की शाम थी। लाहौर की केन्द्रीय जेल में मातमी खामोशी छाई हुई थी।
सभी सरकारी और पुलिस अधिकारी सावधानीपूर्वक फांसी के तख्त के चारों ओर खड़े थे।
आज यहां तीन लोगों को फांसी पर लटकाया जाना था। इस क्रूर माहौल में नौजवानों को लाया गया।
इन्हें देख कर ऐसा लगता था कि ये फांसी पर लटकाने को उतावले हो रहे हों।
ये नौजवान Krantikari थे-भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव।
ठीक ७:३० बजे जेल की डरा देने वाली घंटी बजी और तीनों युवक देशभक्ति के गीत गाते हुए फांसी घर की ओर चल पड़े।
तभी अचानक भगत सिंह अंग्रेज डिप्टी कमिश्रर के पास खड़े हो गए और बोले- मजिस्ट्रेट साहब, आप बड़े भाग्यशाली हैं।
आप इस बात के गवाह बनने जा रहे हैं कि भारतीय Krantikari मौत से नहीं डरते।
इंकलाब,जिंदाबाद।
फांसी का फंदा तीनों क्रांतिकारियों के गले में कस दिया गया और जल्लाद ने तीनों के चेहरे को ढक दिया।
जेलर के रूमाल हिला कर संकेत करते ही जल्लाद ने तख्ती खींच दी।
बस कुछ ही सेकेंडों में सब कुछ खत्म हो चुका था और रह गई थी तीन शहीदों की लाशें।
भगत सिंह का जन्म २८ सितम्बर, १९०७ को पंजाब के लायलपुर जिले के बंगा गांव(अब पाकिस्तान में)में एक सिख परिवार,सरदार किशन सिंह संधू और विद्यावती के घर हुआ था।
संयोगवश,इसी दिन भगत सिंह के पिता और उनके दो चाचा जेल से रिहा हुए थे। भगत सिंह की दादी को लगा कि यह बच्चा बड़ा ही भाग्यशाली है, क्योंकि इसके आते ही उनके तीनों बेटे जेल से रिहा हो गए।
इसलिए उन्होंने बालक का नाम भागोंवाला(भाग्यशाली)रखा।
लेकिन बाद में यही भागोंवाला,भगत सिंह के नाम से जाना जाने लगा। आज भी हम उन्हें इसी नाम से जानते हैं।
भगत सिंह के एक चाचा स्वर्ण सिंह को एक बार अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया।
जेल में वह बीमार पड़ गए और उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ता गया।
बाद में उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया, लेकिन उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ और आखिरकार उनकी मौत हो गई।
भगत सिंह के दूसरे चाचा जेल से छूटने के बाद देश छोड़ कर चले गए।
भगत सिंह की चाचियां अपने पतियों की याद में रोया करती थीं इसे देख बालक भगत सिंह कहा करते थे-चाची आप रोइए मतए मैं जब बड़ा हो जाऊंगा तो अंग्रेजों को देश से खदेड़ दूंगा।
और अपने चाचा को वापस बुला लाऊंगा।
मैं अंग्रजों से तब तक लडूंगा जब तक कि अपने चाचा को कष्ट देने वालों को खत्म नहीं कर देता।
छोटे से बच्चे की इन बहादुरी भरी बातों को सुनकर रोती हुई औरतें अपना दुख भूल जाती थीं।
भगत सिंह जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे तो एक दिन उन्होंने साथ पढऩे वालों से पूछा-तुम बड़े होकर क्या बनना चाहते हो?
सभी बच्चों ने अलग-अलग उत्तर दिया।
किसी ने कहा वह डाक्टर बनना चाहता है तो किसी ने सरकारी अधिकारीl
तो किसी ने व्यपारी बनने की इच्छा जताई।
लेकिन भगत सिंह ने कहा कि वह बड़े होकर भारत से अंग्रेजों को भगा देंगे।
देशभक्ति का खून भगत सिंह की नसों में बचपन से ही दौड़ता था।