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नर्मदा के उदगम स्थल, अमरकंटक के शहतूत

1977 में जब मैं 7 वर्ष का था तब परिवार के साथ अमरकंटक की पहली और एकमात्र यात्रा में शहतूत से पहला परिचय हुआ था। पहला ऐसे की खाये पहले भी होंगे पर इतने बड़े और स्वादिष्ट नहीं कि बाल मन पर छाप छोड़ दें। नर्मदा के उदगम स्थल, अमरकंटक के आसपास उस वक़्त काफी घने जंगल थे और पर्यावरण साफ सुथरा, प्रदूषण से मुक्त, कुछेक आश्रम और धर्मशालाएं थीं।

गर्मी की छुट्टियों में ही वहाँ के ढाई तीन इंच लंबे रसीले, लाल काले से शहतूत खाये थे और आजतक वैसे शहतूत फिर कभी खाने को नहीं मिले। क्योंकि इधर मालवा निमाड़ में जहां से भी शहतूत आते हैं वो हरे ज्यादा होते हैं।

शहतूत (वानस्पतिक नाम: Morus alba) एक फल है। इसका वृक्ष छोटे से लेकर मध्यम आकार का (१० मीटर से २० मीटर ऊँचा) होता है और तेजी से बढ़ता है। इसका जीवनकाल कम होता है। यह चीन का देशज है किन्तु अन्य स्थानों पर भी आसानी से इसकी खेती की जाती है। इसे संस्कृत में ‘तूत’, मराठी में ‘तूती’, तुर्की भाषा में ‘दूत’, तथा फारसी, अजरबैजानी एवं आर्मेनी भाषाओं में ‘तूत’ कहते हैं।

भारत के अन्दर खासकर उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्य-प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल-प्रदेश इत्यादि राज्यों में अत्यधिक होता है। शहतूत में आयरन, कैल्‍शियम, विटामिन ए,सी,ई और के, फोलेट, थायमाइन, नियासिन और फाइबर होता है। इसके अलावा इसमें एंटीऑक्‍सीडेंट हेाता है जो कि फ्री रैडिकल्‍स से लड़ता है।

प्राचीन काल में चीन में इसकी खेती होती थी और इसी पर रेशम का कीड़ा पाला जाता था। तब रेशम या सिल्क भारत आता था और बदले में अफ़ीम चीन जाती थी। बाद में धीरे—धीरे ये भारत आया। रेशम के कीड़े और रेशम उद्योग भी इसी के सहारे पनपा और आज “रेशमी सलवार कुर्ता जाली का, रूप सहा नहीं जाए नखरेवाली का” से लेकर माहेश्वरी,चंदेरी,पैठणी, साउथ, मैसूर, भागलपुरी, संबलपुरी, नलगोंडा, टसर के नामों से प्रचलित साड़ी और सिल्क उद्योग का मुख्य आधार शहतूत के पेड़ ही हैं।

हालांकि रेशम सफेद शहतूत पर होता है। तो फ़िलहाल जो हरे वाले छोटे—छोटे शहतूत मिले अपना दिल तो उन्हीं पर आ गया। बच्चों के साथ मिलकर शहतूत पार्टी मना डाली। गर्मियों में शहतूत खाने से लू नहीं लगती, पेट ठंडा रहता है, त्वचा के लिए बहुत अच्छा है और मोटापा भी घटाता है (इतना नहीं मिला कि मेरा घट जाए😜😜) और हाँ प्रोटीन का भी ये एक अच्छा प्रदाता है।

पिछले कुछ वर्षों में इंदौर की समाजसेविका पद्मश्री जनक पलटा ने इसके सैकड़ों पौधे इंदौर और आसपास लगाए हैं। बांटें भी हैं,(मुझे भी उन्होंने एक पौधा दिया था भेंट में, लेकिन वो मेरी एक छोटी गलती से खत्म हो गया) वो शहतूत आकार में छोटे लेकिन बहुत मीठे हैं स्वाद में, ऐसे ही मीठे शहतूत धार रोड के तफरीह गार्डन में तालाब किनारे लगे हैं,खूब मीठे और सुर्ख रंग के।

सचित्र कथा: अवनीश जैन

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