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कांग्रेस सिंह था असली नाम, पहलवान से पत्रकार बने, अब लिख रहे योगी की जीत की पटकथा

स्कूल में पहलवानी की। ग्रेजुएशन के बाद पत्रकार बन गये। पत्रकारिता जमी नहीं। लेकिन भाग्यनिर्माण का एक मौका जरूर मिल गया। एक बड़े नेता का इंटरव्यू किया। नेता जी इस पत्रकार महोदय से इतने मुत्तासिर हुए कि राजनीति में आने की सलाह दे डाली। वे राजनीति में आये। खूब मेहनत भी की। लेकिन सियासत की राह इतनी आसान न थी। हार से शुरुआत हुई। यहां तक कि जमानत भी जब्त हो गयी। लेकिन सब्र बिल्कुल न खोया। मेहनत से पार्टी में मुकाम बनाया। एक वक्त वह भी आया जब पार्टी में उनकी चर्चा भावी मुख्यमंत्री के रूप में होने लगी। अब ये उत्तर प्रदेश में भाजपा की वापसी की पटकथा लिख रहे हैं। जी हां, ये तार्रूफ है उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह का।

कुश्ती छोड़ पढ़ाई में ध्यान लगाया

स्वतंत्र देव सिंह का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ। राजनीति उनके लिए बिल्कुल अंजान दुनिया थी। कोई गॉडफादर भी नहीं था। लेकिन सेवाभाव और विनम्रता के बल पर उन्होंने राजनीति में ऊंचा मुकाम बनाया। मिर्जापुर जिले के ओरी गांव के एक गरीब किसान परिवार में उनका जन्म हुआ। गांव की प्राथमिक पाठशाला में उनकी पढ़ाई। गांव की आबोहवा में अखाड़े की सोंधी माटी की महक कुछ ज्यादा ही घुली होती है। सो स्वतंत्र देव कुश्ती का शौक फरमाने लगे। वे अपने स्कूल की कुश्ती टीम के कप्तान थे। लेकिन घर की माली हालत कुश्ती जैसे खर्चीले खेल की इजाजत नहीं दे रही थी। गृहस्थी की गाड़ी कौन और कैसे खींचेगा ? ये सवाल मुंह बाये खड़ा था। तब स्वतंत्र देव के बड़े भाई श्रीपत सिंह को बहुत भाग दौड़ के बाद पुलिस में नौकरी मिल गयी। श्रीपत सिंह की तैनाती जालौन जिले के उरई में हुई। जब श्रीपत उरई में रहने लगे तो उन्होंने अपने छोटे भाई स्वतंत्र देव को पढ़ने के लिए अपने पास बुला लिया। हाईस्कूल पास करने के बाद उन्होंने उरई के डीएवी कॉलेज में दाखिला लिया। यहीं वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सम्पर्क में आये। उन्होंने छात्र संघ का चुनाव लड़ा। लेकिन हार गये। एबीवीपी की राजनीति करते हुए वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बन गये। इस बीच उन्होंने पत्रकार के रूप में करियर शुरू किया। वे ‘स्वतंत्र भारत’ अखबार में उरई जिला संवाददाता के रूप में बहाल हुए। ये 1988-89 की बात है।

पत्रकारिता ने जिंदगी को दो तरीके से बदला

एक पत्रकार के रूप में स्वतंत्र देव सिंह का करियर बहुत सफल नहीं रहा। लेकिन इसकी वजह से उनकी जिंदगी में दो बड़ी तब्दिलयां आयीं। ‘स्वतंत्र भारत’ अखबार ने न केवल उनका नाम बदला बल्कि राजनीति में दाखिल होने का मंच भी तैयार किया। स्वतंत्र देव जब पत्रकारिता कर रहे थे (1989) उस समय राम मंदिर आंदोलन चरम पर था। विनय कटियार तब इस आंदोलन के बड़े नेता थे। इस दौरान स्वतंत्र देव ने एक दिन विनय कटियार का इंटरव्यू किया जो स्वतंत्र भारत अखबार में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ। इससे विनय कटियार बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने स्वतंत्र देव को राजनीति में आने की सलाह दी। फिर वे पत्रकार से भाजपा के नेता बन गये। स्वतंत्र देव सिंह का मूल नाम कांग्रेस सिंह था। गांवों में तब दारोगा सिंह, वकील सिंह, कलक्टर सिंह जैसे नाम रखे जाते थे। नाम कांग्रेस सिंह और राजनीति संघ- भाजपा की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक को ये नाम अटपटा लगने लगा। तब संघ के नेता उनके नये नाम पर विचार करने लगे। चूंकि वे स्वतंत्र भारत अखबार मे रिपोर्टर थे। इसके आधार पर उनका नाम स्वतंत्र देव सिंह रख दिया गया। सिंह सरनेम उनका पहले से था। इस तरह कांग्रेस सिंह, स्वतंत्रदेव सिंह के रूप में पहचाने जाने लगे।

राजनीति की पथरीली राह

1992 में स्वतंत्र देव ने पत्रकारिता छोड़ दी। वे युवा मोर्चा के जरिये भाजपा के संगठन को मजबूत करने लगे। संगठनकर्ता के रूप में उन्होंने अमिट छोड़ी। भाजपा के बड़े नेता उनके काम से बहुत प्रभावित हुए। सन 2000 में उन्हें भाजपा युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने बुंदेलखंड में भाजपा के आधार को मजबूत बनाने में असाधारण योग्यता का परिचय दिया। उनके लो प्रोफाइल वर्क कल्चर ने सबका ध्यान आकृष्ट किया। भाजपा का कोई भी बड़ा आयोजन होता, उसकी जिम्मेदारी इन्हें की सौंपी जाती। 2002 में जब अटल जी प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने भाजपा युवा मोर्चा के अधिवेशन की जिम्मेवारी मिली थी। लालकृष्ण आडवाणी की रैली हो या उमा भारती की सभा, इसके आयोजन की जिम्मेदारी इनके ही कंधों पर होती। काम का इनाम भी मिला। 2004 में भाजपा ने उन्हें विधान परिषद में भेजा। इस तरह उनके संसदीय राजनीति की शुरुआत हुई। वे दो बार विधान परिषद के लिए चुने गये। 2012 में उन्हें भाजपा ने कालपी से उम्मीदवार बनाया। लेकिन उनकी करारी हार हुई। जमानत तक जब्त हो गयी। ये हैरानी की बात है कि अद्भुत संगठनकर्ता होने के बाद भी स्वतंत्र देव विधानसभा का चुनाव बुरी तरह हार गये। लेकिन इस हार से उनकी हैसियत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। पार्टी में उनकी अहमियत पहले की तरह बरकरार रही।

ग्रासरूट पॉलिटिक्स की उपज

ग्रासरूट पॉलिटिक्स की उपज होने के कारण स्वतंत्र देव जल्द ही नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के भरेसेमंद नेता बन गये। राजनीति में जाति एक महत्वपूर्ण धूरी है। स्वतंत्र देव कुर्मी समुदाय से आते हैं। उत्तर प्रदेश में ओबीसी समूह के अंतर्गत कुर्मी दूसरी सबसे बड़ी जाति है। यादव समुदाय पहले स्थान पर है। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय सपा की सरकार थी। अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे। सपा के जातीय समीकारण की काट में भाजपा ने स्वतंत्र देव को प्रमोट करना शुरू किया। वे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की कोर टीम में शामिल हो गये। उन्होंने एक बार फिर अपनी संगठन क्षमता प्रमाणित की। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बंपर जीत मिली। लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा की 11 सीटों पर उपचुनाव होना था। ये सभी सीटें सपा की प्रभाव वाली थीं।

जातीय समीकर से इतर भी जीत दिलाने का माद्दा

स्वतंत्र देव सहारनपुर सदर सीट के लिए चुनाव प्रबंधन कर रहे थे। इस क्षेत्र में कुर्मी वोटरों की संख्या नगण्य थी। लेकिन इसकी परवाह न करते हुए उन्होंने सघन जनसम्पर्क अभियान चलाया। भाजपा प्रत्याशी राजीव गुंबर ने जीत का परचम फहराया। भाजपा के लिए यह अविश्वसनीय जीत थी। तब से यह माना जाने लगा कि स्वतंत्र देव जातीय समीकरण को दरकिनार कर भी भाजपा को विजय दिला सकते हैं। 2017 के चुनाव में उन्होंने भाजपा को बुंदेलखंड में बड़ी दिलायी। उनका नाम भावी मुख्यमंत्री के रूप में उछलने लगा। मनोज सिन्हा और योगी आदित्यनाथ के साथ उनके नाम की भी चर्चा होने लगी। लेकिन आखिरी वक्त में योगी आदित्यनाथ बाजी मार गये। उन्हें योगी सरकार मे मंत्री बनाया गया। उत्तर प्रदेश में भाजपा के जातीय समीकरण को संतुलित करने के लिए 2019 में उन्हें मंत्री पद की जिम्मेवारी से मुक्त करते हुए एक बार फिर संगठन में भेजा गया। भाजपा अपनी राजनीति को मजबूत करने के लिए गैरयादव पिछड़ी जातियों पर फोकस कर रही थी। तब उसने कुर्मी समाज से आने वाले स्वतंत्र देव सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बना कर बड़ा दांव खेल दिया। अब वे भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से योगी सरकार की जीत के लिए पटकथा लिख रहे हैं।

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