उत्तर प्रदेशफ्लैश न्यूज

उत्तर प्रदेश को लेकर भाजपा बेचैन

राजनीति में एक मिथ है। जिस दल ने यूपी और बिहार में अपना दबदबा कायम किया, तो दिल्ली में उसी की सरकार बनती है। वर्तमान में देखें तो दोनों ही राज्यों में भाजपा या फिर एनडीए की सरकार है।

अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं। केंद्र में अपनी मजबूती और सबसे बड़े राज्य में अपनी ताकत को बनाए रखने के लिए भाजपा पूरी तरह से राज्य में सक्रिय हो गई है।

उत्तर प्रदेश को लेकर पार्टी के अंदर बेचैनी भी बढ़ रही है। सूत्रों का दावा है कि प्रदेश में एंटी इनकंबेंसी को कम करने के लिए पार्टी कई तरह के बदलाव पर विचार कर रही है।

जिस तरह से राजनीतिक गलियारों में उत्तर प्रदेश को लेकर चर्चा गर्म है। उससे तो इसी बात का अंदाजा लगता है कि पार्टी राज्य में बड़े बदलाव की ओर बढ़ रही है। पार्टी की ओर से राज्य में कुछ नेताओं की सक्रियता बढ़ा दी गई है।

सरकार और पार्टी के बीच बेहतर समन्वय पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में मजबूत सरकार होने के बावजूद पार्टी में ऐसी स्थिति क्यों आई है।

पूरे देश के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में भी कोरोना वायरस लगातार चरम पर था। लेकिन जिस तरह से देश की सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य से खबर आ रही थी। वाकई वह सभी में बेचैनी पैदा कर रही थी।

कोरोना की डराने वाली ज्यादातर खबरें उत्तर प्रदेश की ही रही। कोरोना की पहली लहर में उत्तर प्रदेश में जितना सब कुछ व्यवस्थित नजर आ रहा था। दूसरी लहर में वह चीज देखने को नहीं मिली।

स्थिति ऐसी बनी कि मंत्री, विधायक और सांसदों की भी सुनवाई नहीं हो रही थी। लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर से जो तस्वीरें आई वह वाकई हैरान करने वाली थी। हालांकि, सरकार के कुछ अच्छे कदमों की वजह से फिलहाल उत्तर प्रदेश में कोरोना पर कंट्रोल कर लिया गया है।

लेकिन कहीं ना कहीं सरकार की छवि को काफी नुकसान पहुंचा है। भाजपा को यह लगने लगा है कि प्रदेश सरकार को लेकर जो धारणा एक बार राज्य में बन गई है वह अब बदल नहीं सकती है। लोगों के जेहन में अव्यवस्था हावी ना हो पाए इसलिए कई तरह के बदलाव को अपनाया जा रहा है।

उत्तर प्रदेश में चुनाव हो और जाति आधारित राजनीति ना हो ऐसा हो नहीं सकता। विपक्ष की सक्रियता को देखते हुए भाजपा अब जातिगत समीकरणों पर ध्यान देने लगी है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग दोनों ही निर्णायक भूमिका में है।

यही कारण है कि भाजपा ने भी कल्याण सिंह के चेहरे को आगे कर सत्ता हासिल करने में कामयाबी पाई थी। कल्याण सिंह अति पिछड़ा समाज से आते हैं। इसी समाज को गोलबंद करने के लिए भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था और इसका नतीजा देखने को भी मिला।

उन्हें सीएम उम्मीदवार तो नहीं बनाया गया लेकिन जिस तरह से इस समुदाय का वोट भाजपा को मिला उससे इस बात का तो अंदाजा लग ही गया कि कहीं ना कहीं केशव प्रसाद मौर्य इसके सबसे बड़े कारण रहे। केशव मौर्य को डिप्टी सीएम की जिम्मेदारी दी गई।

अब विपक्ष राज्य में अति पिछड़ा वर्ग के बीच उनकी उपेक्षा के मुद्दे को हवा दे रहा है। यही कारण है कि अब भाजपा एक बार फिर से केशव मौर्य को आगे करने की तैयारी में है।

उत्तर प्रदेश में देखा जाए तो योगी आदित्यनाथ के रूप में भाजपा को मुख्यमंत्री का मजबूत चेहरा हासिल है। लेकिन योगी आदित्यनाथ की स्वीकार्यता कितनी है यह अब भी सवालों में है।

कई पार्टी कार्यकर्ताओं का आरोप है कि राज में अफसरशाही हावी हो गया है। यह भी कहा जाता है कि योगी बाकी नेताओं की उपेक्षा करते हैं। ऐसे में भाजपा के लिए बड़ा सवाल यह हो जाता है कि चुनाव में जाने से पहले सीएम चेहरा दे या नहीं दे।

जिस तरह हमने असम में देखा कि भाजपा ने सीएम का कोई चेहरा नहीं दिया था। चुनाव बाद उत्पन्न परिस्थितियों का जायजा लेने के बाद हेमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बना दिया।

अगर उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नाम पर भाजपा चुनाव नहीं लड़ती है तो कहीं ना कहीं एंटी इनकंबेंसी को कम करने में पार्टी कामयाबी हासिल कर सकती है।

इसके अलावा जो नेता सीएम बनने की रेस में है या सीएम बनने की चाहत रखते हैं वह मिलकर चुनाव में आगे रहेंगे। अपनी सक्रियता दिखाएंगे।

लेकिन यह बात भी सही है कि उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए हिंदुत्व का प्रयोगशाला भी है। योगी आदित्यनाथ को सीएम के तौर पर आगे नहीं किया गया तो कहीं ना कहीं भाजपा हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने में संघर्ष करती नजर आ सकती है।

उत्तर प्रदेश में देखा जाए तो भाजपा के लिए कांग्रेस से ज्यादा चुनौती समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से है। अखिलेश यादव लगातार योगी सरकार पर हमलावर हैं। प्रदेशभर का दौरा भी कर रहे हैं।

मायावती भी अपने स्तर की राजनीति लगातार करती रहती हैं। हालांकि जमीन पर उनकी सक्रियता कम दिखाई देती है। लेकिन उनका अपना वोट बैंक है।

भाजपा का अब तक जो आकलन है वह यह है कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल होते है। वहां उसे ज्यादा चुनौती का सामना करना पड़ता है, जबकि जिन राज्यों में विपक्ष के रूप में कांग्रेस है। वहां पार्टी आसानी से बाजी मार लेती है।

उत्तर प्रदेश में भी पार्टी का क्षेत्रीय दलों से सामना है। कांग्रेस अभी भी संघर्ष की स्थिति में है और अपनी जमीन को प्रदेश में तलाश रही है। हालांकि प्रियंका गांधी जैसी मजबूत नेता उसके पास प्रदेश में है।

उत्तर प्रदेश में भाजपा की बेचैनी का कारण यह भी है कि अगर नतीजे पार्टी के पक्ष में नहीं रहे थे इसका असर 2024 में दिखाई देगा। उत्तर प्रदेश की राजनीति का असर सीधे दिल्ली की राजनीति पर पड़ता है।

2014 और 2019 में पार्टी ने उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन किया जिसका नतीजा यह हुआ कि दोनों ही आम चुनाव में एनडीए को 300 से ज्यादा सीटें हासिल करने में कामयाबी मिली। 2024 के मद्देनजर उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए बेहद ही जरूरी है।

यही कारण है कि पार्टी ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। संघ भी अपने स्तर से लगातार प्रदेश से फीडबैक ले रहा है। पार्टी आलाकमान और संघ के बीच बैठक भी हो चुकी है। इंतजार अब सिर्फ निर्णय का किया जा रहा है।

उत्तर प्रदेश की वर्तमान चुनौती को भाजपा कैसे पार कर पाएगी इसको देखना होगा। हालांकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह से प्रदेश में सक्रियता बढ़ाई है उससे कहीं ना कहीं नाराजगी को कम करने में मदद मिलेगी।

सूत्र यह भी दावा कर रहे हैं कि प्रदेश अध्यक्ष की कमान एक बार फिर से केशव प्रसाद मौर्य को सौंपी जा सकती है। प्रधानमंत्री के करीबी रहे एके शर्मा को उपमुख्यमंत्री की जिम्मेदारी दी जा सकती है। ब्राह्मणों की नाराजगी को कम करने के लिए पार्टी ब्राह्मण चेहरे को आगे बढ़ाने की लगातार सोच रही है।

इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान नाराज चल रहे हैं। ऐसे में उन्हें मनाने के लिए राजनाथ सिंह को आगे करने पर भी विचार किया जा रहा है। ऐसी तमाम अटकलें हैं जो कहीं ना कहीं पार्टी के अंदर से निकल कर सामने आ रही है। देखना यह होगा कि पार्टी का फैसला क्या होता है।

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