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Bhagat Singh अमर शहीद भाग-चार

Bhagat Singh अमर शहीद भाग-तीन में आप यहॉं तक पढ़ चुके हैंl

कि बम बनाने की तकनीक उन्होंने एक क्रांतिकारी जतींद्र नाथ दास से सीखी।

अब पढ़िए इससे आगे:—

१९२८ में ब्रिटिश सरकार ने भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन किया।

इसे साइमन कमीशन के नाम से जाना गया।

भारत की राजनीतिक पार्टीयों ने इसका जमकर विरोध किया क्योंकि इसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। ३० अक्टूबर, १९२८ को साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा।

वहां लाला लाजपत राय की अगुवाई में इसका जोरदार विरोध हुआ।

पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज कर दिया। लाठी लाजपत राय को भी लगी जिससे वह बुरी तरह घायल हो गए।

कुछ दिनों बाद लाला जी की मृत्यु हो गई।

लाठी चार्ज का आदेश देने वाले पुलिस अधीक्षक जे.ए. स्कॉट से Bhagat Singh बदला लेना चाहते थे।

इसके लिए उन्होंने एक योजना बनाई।

उन्होंने कई दिनों तक पुलिस स्टेशन का मुआयना किया।

अब योजना को अमल में लाने की बारी थी।

१७ दिसंबर, १९२८ को भगत सिंह और राजगुरू पुलिस स्टेशन के गेट से कुछ ही दूरी पर छुपकर खड़े हो गए।

जय गोपाल गेट के नजदीक अपनी साईकिल लिए कुछ इस तरह खड़ा था कि लगे कि वह साइकिल की चेन ठीक कर रहा है।

जय गोपाल का संकेत मिलते ही Bhagat Singh और राजगुरू को अपने काम को अंजाम देना था।

योजना के अनुसार चंद्रशेखर आजाद भी बगल के डीएवी कॉलेज की चारदीवारी के पास अपनी पिस्तौल लिए खड़े थे।

अपना काम करने के बाद भगत और राजगुरू को हॉस्टल की तरफ से निकालना था और आजाद को दोनों की बच निकलने में मदद करनी थी।

कुछ ही देर में पुलिस उपाधीक्षक जे. पी. सांडर्स बाहर आया।

तभी जयगोपाल का संकेत पाकर राजगुरू ने एकदम उस पर गोली चला दी।

भगत सिंह ने भी सांडर्स पर तीन फायर किए और दोनों हॉस्टल की दीवार फांद कर भाग गए।

एक हेड-कांस्टेबल ने उन्हें पकडऩे की कोशिश की, लेकिन वह आजाद के हाथों मारा गया।

क्रांतिकारी पुलिस अधीक्षक जे.ए.स्कॉट को मारना चाहते थे, लेकिन जयगोपाल ने गलती से सांडर्स को स्कॉट समझकर इशारा कर दिया।

हालांकि बाद में यह खुलासा हुआ कि लाला जी सांर्डस की लाठी से ही घायल हुए थे। सांडर्स की हत्या के बाद लाहौर की सुरक्षा बढ़ा दी गई।

भगत सिंह ने अपनी दाढ़ी बनवा दी और अमेरिकन के वेश में अंग्रेजो को चकमा देकर ट्रेन से लाहौर से बच निकले।

इसमें मदद की दुर्गा भाभी ने, जो उनकी मेम साहब बनी थीं और राजगुरू नौकर।

 १९२७-२८ में अंग्रेज सरकार देश में चल रहे मजदूर आंदोलन को कुचलने के लिए लेबर बिल लाना चाहती थी।

विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम जनता भी इस बिल का विरोध कर रही थी। भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंक कर और पर्चे बांटकर इस बिल का विरोध करने का निश्चय किया। २९ अप्रैल, १९२९ को जब हाउस की कार्यवाही चल रही थी, भगत

Bhagat Singh और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंका।

बम फटते ही सेंट्रल असेंबली में भगदड़ मच गई।

कुछ ही मिनटों में पूरा हाउस खाली हो चुका था। हाउस स्पीकर अपनी कुर्सी के नीचे छिप गए थे।

केवल तीन लोग अपनी कुर्सी पर विराजमान थे- मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय और मोहम्मद अली जिन्ना।

तानों सदस्य अपनी सीट पर बुत बने खड़े थे।

इसके अलावा दर्शक दीर्घा में खड़े दो नौजवान इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे और पर्चे फेंक रहे थे।

हालांकि दोनों नौजवान आसानी से भाग सकते थे, लेकिन वे वहीं खड़े होकर नारे लगाते रहे।

इस घटना में ना तो कोई मारा गया था न ही कोई घायल हुआ था।

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दावा किया कि उन्होंने बम किसी को मारने के लिए नहीं फेंका था।

उनके दावे की इस बात से भी पुष्टि हुई कि घटना की जांच करने वाले ब्रिटिश विशेषज्ञों ने भी पाया कि बम इतना शक्तिशाली नहीं था कि उससे कोई घायल भी हो सके।

सच्चाई तो यह थी कि बम लोगों से दूर खाली स्थान पर फेंका गया था।

बम फेंकने के बाद Bhagat Singh और दत्त ने खुद ही अपने को गिरफ्तार करवा दिया।

१२ जून, १९२९ को दोनों नौजवानों को लोगों की जान लेने का प्रयास करने का दोषी ठहराया गया।

उनकी गिरफ्तारी और केस की सुनवाई के कुछ ही दिनों बाद अंग्रेजों को इनके जे.पी.सांडर्स की हत्या में शामिल होने के बारे में पता चल गया।

Bhagat Singh, राजगुरू और सुखदेव पर हत्या का आरोप भी लगा दिया गया।

इसे देखते हुए भगत सिंह को लगा कि यह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने और लोगों में आजादी की भावना जगाने का अच्छा मौका हो सकता है।

उन्होंने हत्या में शामिल होने का आरोप स्वीकार कर लिया और सुनवाई के दौरान अंग्रेजों की करतूतों का जमकर पर्दाफश किया।

जेल में भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर कैदियों के अधिकारों के लिए भूख हड़ताल शुरू कर दी।

उन दिनों जेल में बंद अंग्रेज कैदियों को भारतीय कैदियों से बेहतर भोजन और अन्य सुविधाएं दी जाती थीं।

भगत सिंह की मांग थी कि सभी के साथ एक समान व्यवहार किया जाए।

यह हड़ताल ११५ दिनों तक चली।

आखिरकार ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और भगत सिंह की सारी मांगें मान ली गईं।

इससे उनकी लोकप्रीय और बढ़ गई।

सुनवाई के बाद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को ७ अक्टूबर, १९३० को फांसी की सजा सुनाई गई।

भगत सिंह के पिता ने एक दया याचिका दायर की।

भगत सिंह को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने पिताजी को लिखा-पिताजी आपने आपना सारा जीवन देश की आजादी के लिए न्यौछावर कर दिया, लेकिन आज मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि इस महत्वपूर्ण घड़ी में आप इतने कमजोर कैसे हो रहे हैं।

मेरा जिंदा रहना मूल्यों और सिद्धांतों से बढ़कर नहीं है।

यहां जो कुछ होगा हम सभी साथियों के साथ होगा। हम सभी साथ खड़े हैं।

हमें इस बात की परवाह नहीं हैं कि इस

संयुक्त अभियान के लिए क्या कीमत अदा करनी पड़ेगी।

३ मार्च, १९३१ को भगत सिंह के परिवार वाले उनसे मिलने जेल में आए।

यह उनकी आखिरी मुलाकात थी। सभी लोग दुखी थे, लेकिन भगत सिंह के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं थी।

वह सब से मुस्कुरा कर मिले।

उन्होंने अपनी माँ से कहा-मेरे मरने के बाद आप मेरी लाश के पास मत आइएगा, क्योंकि आप अपने आंसू रोक नहीं पाएंगी और लोग कहेंगे कि एक शहीद की मॉ रो रही है।

इतना कह कर वह जोर-जोर से हंसने लगे।

यह देखकर उनके सभी साथी और जेल अधिकारी आश्चर्यचकित थे।

२३ मार्च, १९३१ को भगत सिंह, लेनिन की आत्मकथा पढ़ रहे थे तभी एक अधिकारी आया और बोला-सरदार जी, आपकी फांसी का समय हो गया है।

भगत सिंह ने जवाब दिया-रूको एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।

थोड़ी देर बाद Bhagat Singh ने कहा-अब मैं तैयार हूं।

ठीक ७:३३ बजे उन्होंने भारत मां की बलि बेदी पर अपने आप को न्यौछावर कर दिया।

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