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बेहद खास हैं उपचुनाव के ये नतीजे

नई दिल्ली । दिल्ली के बवाना उपचुनाव पर यकीनन देशभर की नजर लगी हुई थी। अब इस नतीजे को दलबदल की कीमत कहें या मतदाताओं की परिपक्वता, लेकिन इतना तो तय है कि भारत में लोकतंत्र बेहद सशक्त है और मतदाता की सूझबूझ का कोई सानी नहीं।
देश में इन चार विधानसभा उपचुनावों के नतीजों को लेकर दावे जो भी हों, सच यही है कि जहां जिसकी सरकार थी, वहां उसने जीत हासिल की। लेकिन बवाना पर भाजपा का दांव उल्टा पड़ जाना, काफी कुछ कहता है।
एक ओर जहां भाजपा 2019 की तैयारियों में है, वहीं 350 सीटों पर जीतने के लिए जादुई अंकगणित के नुस्खों के बीच यह नतीजा कहीं न कहीं भाजपा के लिए अच्छा नहीं है। बवाना में नुस्खा आजमाइश बेकार जाना निश्चित रूप से दुनिया की सबसे बड़ा कहलाने वाले राजनैतिक दल के लिए, जहर बुझे तीर से कम नहीं होगा।

आंकड़ों के लिहाज से ही देखें तो पता चलता है कि 1998 से अभी तक भाजपा को इतने कम प्रतिशत में मत कभी नहीं मिले। निश्चित ही भाजपा के परंपरागत मतदाताओं का रुझान कमा है, जो 27.2 प्रतिशत तक नीचे चला गया।
जिस दिल्ली विधानसभा परिणामों ने भाजपा की सुनामी रोकी थी और सभी राजनैतिक समीक्षकों-आलोचकों का मुंह बंद कर दिया था, उसी दिल्ली ने सितंबर 2015 में दिल्ली छात्रसंघ चुनावों में ’आप’ को दूसरे, तीसरे और चौथे नंबर पर पहुंचाया।

अप्रैल, 2016 में नगर निगम उपचुनाव में वोट प्रतिशत में दूसरे नंबर पर ला पटका। मार्च, 2017 में पंजाब और गोवा विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन नहीं करना, भरपूर आत्मविश्वास के बाद पंजाब में दूसरे नंबर पर तथा गोवा में खाता तक नहीं खोल पाने से अवसाद ग्रस्त ’आप’ में जश्न का माहौल होगा।
हो भी क्यों न, अप्रैल, 2017 में राजौरी गार्डन उपचुनाव में जमानत तक जब्त करा देना तथा अप्रैल में ही दिल्ली नगर निगम में भाजपा को 36.18 प्रतिशत मत मिलने से चित्त होने के बाद अब यह जीत आप के लिए संजीवनी है।
निश्चित रूप से ’आप’ के लिए नया जीवनदान है, लेकिन उससे बड़ा भाजपा के लिए चिंता का सबब भी। हां, कांग्रेस इस बात से खुश जरूर होगी, क्योंकि जहां 2015 के चुनाव में प्राप्त मतों का प्रतिशत केवल 7.87 रहा, जो अब 24.21 पर पहुंच गया है।

आप के प्रत्याशी रामचंद्र का 59886 मतों के साथ 45.4 प्रतिशत मत हासिल करना, भाजपा के वेदप्रकाश का 35834 मतों के साथ दूसरे नंबर पर रहना और कांग्रेस का 24.2 फीसदी मतों के साथ तीसरे पर ही थम जाना बताता है कि दलबदल की प्रवृत्ति को ही मतदाओं ने नकारा है, जो भाजपा के लिए घातक होगी। कारण साफ है कि दलबदल से भाजपा के आंतरिक संगठन में भी बगावत और नाखुशी थी, जिसे दरकिनार करके भाजपा का यह प्रयोग विफल रहा।
कांग्रेस के लिए यह जरूर सुकून भरी हार है। बवाना उपचुनाव इसलिए भी खास है, क्योंकि देश का शायद ही कोई कोना बचता हो, जहां के लोग दिल्ली में न बसे हों। इसे सैंपल या लिटमस टेस्ट भी कह सकते हैं।
आंध्रपदेश में सत्तासीन तेलुगू देशम पार्टी की जीत हुई। नांदयाल सीट पर ब्रम्हानंद रेड्डी ने वाईएसआर कांग्रेस के शिल्पा मोहन रेड्डी को 27,000 वोटों से हराया। 2014 में यह सीट वाईएसआर कांग्रेस के भुमा नागी रेड्डी ने जीती थी, जो बाद में तेदेपा में चले गए। उनकी मृत्यु के बाद यह सीट रिक्त हुई।
हां, गोवा में जरूर भाजपा की जय हुई है। यहां पर भाजपा के प्रभाव में बढ़ोतरी दिखी, जो शायद मनोहर पर्रिकर के कारण ही है। क्योंकि ज्यादा सीटें जीतकर भी कांग्रेस सरकार बनाने में विफल रही और भाजपा ने पर्रिकर के दांव पर हारी हुई बाजी जीती थी।
अब पणजी में मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर 4803 मतों से छठी बार इस सीट पर पर जीतकर भाजपा के लिए संकटमोचक बन चुके हैं। कांग्रेस के गिरीश चोडणकर को 5059 मत, जबकि गोवा सुरक्षा मंच के आनंद शिरोडकर केवल 220 मत ही मिले, जो बताते हैं कि भाजपा ने यहां अच्छी रिकवरी की है।
गोवा की ही वालपोई सीट राज्य के स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे ने 10666 मतों से जीती। यहां कांग्रेस विधायक पद से इस्तीफा देकर राणे भाजपा में शामिल हो गए थे, जिस कारण यह उपचुनाव हुआ।
इतना तो तय है कि भारत के मजबूत लोकतंत्र के आहूति रूपी एक-एक मतदाता अपने अधिकारों को लेकर बेहद संजीदा हैं। दिल्ली में अगले चुनाव में केजरीवाल के सफाए का दावा और बवाना उपचुनाव में उन्हीं के हाथों निपट जाना भाजपा के लिए मंथन जैसा होगा।
सच तो ये है कि कहे-अनकहे ही महीने, दो महीने की कई घटनाओं ने भाजपा को आईना दिखाने जैसा काम किया है, जिस पर चिंतन जरूरी है। बवाना उपचुनाव पक रहे चावलों में से एक को टटोलने जैसा है। बस देखना यह होगा कि देश की सियासी पार्टियां कितनी संजीदा हैं जो हांडी चढ़े चावल को कितना परख पाती हैं!

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