श्राद्ध का रज-तमात्मक युक्त भोजन ग्रहण करने पर, उसकी सूक्ष्म-वायु हमारी देह में घूमती रहती है। ऐसी अवस्था में जब हम पुनः भोजन करते हैं, तब उसमें यह सूक्ष्म-वायु मिल जाती है। इससे, इस भोजन से हानि हो सकती है। इसीलिए, हिन्दू धर्म में बताया गया है कि उपरोक्त कृत्य टालकर ही श्राद्ध का भोजन करना चाहिए। कलह से मनोमयकोष में रज-तम की मात्रा बढ़ जाती है। नींद तमप्रधान होती है। इससे हमारी थकान अवश्य मिटती है, पर शरीर में तमोगुण भी बढ़ता है। इसलिए प्रयास करें कि श्राद्ध पक्ष ये तेरहवीं आदि मृतकों के निमित्त बनाए गए भोजन को करने से बचना चाहिए।
भगवद गीता पितृ पक्ष के बारे में क्या कहती है
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘आत्मा का न तो कभी जन्म होता है और न ही मृत्यु। आत्मा अजन्मा, शाश्वत, नित्य और आदि है। शरीर के मारे जाने पर भी वह नहीं मरती।’ पितृ पक्ष के अनुष्ठान आत्मा को जीवन-मरण के दुष्चक्र से मुक्त करते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
श्राद्ध में क्या भोजन बनाना चाहिए
श्राद्ध में खीर-पूरी के साथ जौ, मटर और सरसों से बना सात्विक भोजन बनाना चाहिए, जिसमें गाय के दूध, दही और घी का प्रयोग हो। साथ ही गंगाजल, शहद और तिल जरूर शामिल करें, इस दिन प्याज, लहसुन, मूली, बैंगन, उड़द की दाल से बने पकवान और बासी भोजन नहीं बनाना चाहिए।
क्या-क्या दान करें
यह समय पूर्वजों की आत्मा की शांति और उनकी प्रसन्नता के लिए दान-पुण्य करना अत्यंत शुभ माना जाता है। इस दौरान वस्त्र, छतरी, काले तिल, गुड़-नमक, चावल-दूध-चांदी जैसे दान विशेष रूप से फलदायी माने जाते हैं। ऐसा करने से पितरों की कृपा बनी रहती है और जीवन में सुख, समृद्धि व खुशहाली आती है।
श्राद्ध कर्म : पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक
पितृपक्ष के दौरान पितृ गण सूक्ष्म रूप से अपनी संतान के आस-पास उपस्थित रहते हैं। प्रत्येक वर्ष में एक बार पितृ पक्ष के पंद्रह दिन पूर्वजों की अदृश्य सत्ता से संवाद, उनका आशीष प्राप्त करने का अमोघ समय है। श्राद्ध कर्म पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है, पितृपक्ष में श्रद्धा और तर्पण से पितरों को तृप्त किया जाता है। श्राद्ध कर्म धार्मिक अनुष्ठान के साथ-साथ पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और स्मरण का प्रतीक है। पितृपक्ष में श्राद्ध, दान और तर्पण द्वारा पितरों को तृप्त किया जाता है, जिससे उनका आशीर्वाद प्राप्त होकर पारिवारिक व सामाजिक जीवन में संतुलन और सद्भाव स्थापित होता है। भारतीय संस्कृति में पूर्वजों का स्मरण और उनके प्रति सम्मान एक गहन परंपरा के रूप में स्थापित है। ब्रह्म पुराण, गरुड़ पुराण आदि ग्रंथों में श्राद्ध कर्म का विशेष महत्व बताया गया है। हर शुभ कार्य के आरंभ में माता-पिता और पितरों को नमन करने की परंपरा इसलिए है, क्योंकि उनकी कृपा और आशीर्वाद के बिना कोई भी कार्य पूर्ण फलदायी नहीं होता। शास्त्रों के अनुसार देवता भी तभी प्रसन्न होते हैं जब पितरों की तृप्ति होती है।
श्राद्ध का अर्थ केवल भोजन, दान या कर्मकांड तक सीमित नहीं है। पितृ गण यह भी देखते हैं कि उनके वंशज कितनी श्रद्धा और भावनाओं के साथ उन्हें स्मरण कर रहे हैं। सच्चे मन से अर्पित की गई कोई भी वस्तु उन्हें प्रिय होती है और वे तृप्त होकर आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
पितृ पक्ष पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और स्मृति का अवसर हैं। वर्ष में पंद्रह दिन पितरों के प्रति श्रद्धा-समर्पण, पिंड दान और उनके स्मरण के लिए निर्धारित हैं। लोक मान्यता है कि इन दिनों पितृ अपने-अपने वंशजों के घर सूक्ष्म रूप में उपस्थित रहते हैं और उनकी श्रद्धा से प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं, इसलिए इस समय दान-पुण्य, तर्पण और स्मरण जैसे कर्मों को प्राथमिकता दी जाती है। अघोर पंत साधना से जुड़े साधक इस दौरान पूर्वजों की मृत आत्माओं से संपर्क स्थापित करते हैं। श्राद्धपक्ष का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य को सांसारिक मोह-माया से कुछ समय दूर करके आत्मीय भाव से पूर्वजों के प्रति समर्पित करना है। श्राद्ध कर्म हमें यह स्मरण कराता है कि पूर्वजों की मेहनत और संस्कार ही हमारी आज की पहचान का आधार हैं। पितृपक्ष में पितरों को जल आदि देने से हम पितरों को तृप्त करते हैं, सच्चे मन से पितरों को अपनी श्रद्धा अर्पण करने से पितृ गण आशीर्वाद देते हैं, जिससे व्यक्ति के जीवन में आने वाली बाधाओं का शमन होता है और पितृ कृपा से भाग्योदय, सुख-संपत्ति की प्राप्ति होती है। पितृपक्ष के पंद्रह दिन, पूर्वजों के साथ वर्तमान पीढ़ी को जोड़ने का अदृश्य सेतु है।