RajGuru ने सांडर्स को मौत के घाट उतारा
RajGuru थे, सांडर्स को मौत के घाट उतारने वाले महान क्रांतिकारीl १७ दिसंबर,१९२८ लाहौर में अन्य दिनों की तरह व्यस्तता थी। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, और RajGuru अपनी भरी हुई पिस्तौल के साथ पुलिस थाने के पास मंडरा रहे थे।
भगत सिंह और आजाद साइकिल पर थे,जबकि राजगुरू पैदल। इनके एक अन्य सहयोगी जयगोपाल साइकिल से उनके आगे थे। जय गोपाल की नजर उस पुलिस अधीक्षक पर थी जो थाने से बाहर निकलने वाला था। भगत सिंह और RajGuru थाने के निकट पूरी तैयारी के साथ खड़े थे।
जबकि आजाद, डीएवी कॉलेज के पास भरी हुई पिस्तौल के साथ खड़े थे। जय गोपाल पुलिस थाने के सामने अपनी साइकिल ठीेक करने के बहाने से खड़े थे। जैसे ही अंग्रेज पुलिस अधिकारी मोटर साइकिल से बाहर निकला। जयगोपाल ने इशारा किया और RajGuru ने गोली चला दी।
पुलिस अधिकारी नीचे गिर पड़ा। फिर भगत सिंह ने उसे कुछ और गोलियां मारीं। इसके बाद तीनों वहां से भागने लगे, लेकिन हवलदार चरण सिंह ने उन्हें देख लिया। उसने अपनी साइकिल के साथ उनका पीछा किया। आजाद एक स्तंभ के पीछे से इस घटना पर नजर रखे हुए थे। उन्हे लगा कि भगत सिंह और RajGuru की पिस्तौल खाली हो गई है।
उन्होंने अपनी माउजर से चरण सिंह पर गोली चलाई और तीनों साथियों को बचा लिया। चरण सिंह की वहीं मौत हो गई। इसके बाद सभी वहां से भाग गए। इससे पहले ३० अक्टूबर,१९२८ को उप-अधीक्षक जे.पी. सांडर्स ने साइमन कमीशन के खिलाफ एक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन पर लाठीचार्ज कराया था।
जिससे लाला लाजपत राय घायल हो गए थे। इसके कुछ ही दिनों बाद १७ नवंबर को उनकी मौत हो गई थी। लाजपत राय की अंतिम यात्रा में शामिल लोग सांडर्स से बदला लेने के नारे लगा रहे थे।
भगत सिंह, RajGuru और उनके साथियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने की कसम खाई। उन्होंने 17 दिसंबर को सांडर्स को मौत के घाट उतार कर बदला ले लिया।
सांडर्स के मारे जाने की खबर आग की तरह फैल गई। साथ ही पुलिस और खुफिया विभाग तत्काल हरकत में आ गया। क्रांतिकारीयों को पकडऩे के लिए पुलिस हरसंभव जगह, होटलों, धर्मशlलाओं, बाजारों में छापे मार रही थी। लेकिन पुलिस को सफलता नहीं मिली। RajGuru, भगत सिंह, आजाद और उनके साथी क्रांतिकारी लौहार में ही कहीं छिपे हुए थे।
जल्द ही उन्होंने लाहौर से बाहर किसी सुरक्षित स्थान पर जाने का फैसला किया। एक शाम एक बड़ी अमेरिकी कार लाहौर रेलवे स्टेशन पर आकार रूकी। गाड़ी का दरवाजा एक भारतीय अर्दली ने खोला। गाड़ी से सजा-संवरा एक अमेरिकी नौजवान उतरा। उसके हांथ में छड़ी थी और होठों में सिगार दबा हुआ था।
उसके साथ उसकी मेम थी। वे सभी प्लेटफॉर्म पर गए जहां काफी भीड़ थी। वहां काफी संख्या में पुलिस और खुफिया विभाग के अधिकारी सादे कपड़ों में घूम रहे थे। प्लेटफॉर्म पर एक साधू भी घूम रहा था। अमेरिकी नागरिक और उसकी पत्नी कलकत्ता जाने वाली ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे की ओर बढ़ गए।
जबकि उनका अर्दली तृतीय श्रेणी के डिब्बे में चला गया। कुछ देर बाद गाड़ी चल पड़ी। अमेरिकी नागरिक के वेश में भगत सिंह थे और उनकी पत्नी बनी थीं, दुर्गा भाभी। अर्दली राजगुरू बने थे। साधू के वेश में चंद्रशेखर आजाद थे, वे भी गाड़ी पर सवार थे। इस तरह से भारत माता के महान सपूत अंग्रेज अधिकारियों को चकमा देने में सफल रहे।
राजगुरू शिवराम हरि का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी में 24 अगस्त,1908 को हुआ था। उनके पिता हरि राजगुरू पूना के रहने वाले थे। उनके परिवार को राजगुरू की उपाधि मिली हुई थी। जब वह सिर्फ छह वर्ष के थे। तभी उनके सिर से पिता का साया उठ गया। बड़े भाई दिनकर हरि राजगुरू ने उन्हें पाला-पोसा। प्राथमिक शिक्षा के लिए शिवराम हरि राजगुरू का दाखिला एक मराठी स्कूल में करा दिया गया।
हालांकि राजगुरू का मन पढऩे से ज्यादा खेलने-कूदने में लगता था। 1924 में राजगुरू किसी को बिना बताए घर छोड़ कर चले गए। उस समय उनकी जेब में मात्र नौ पैसे थे। 130 किलोमीटर पैदल चलकर वे ट्रेन से नासिक पहुंचे। इसके बाद भी उन्होंने अपनी यात्रा जारी रखी। कभी वह पैदल तो कभी ट्रेन से यात्रा करते। झांसी, कानपुर और लखनऊ होते हुए अंतत: राजगुरू, काशी (वाराणसी) पहुंचे। काशी में वह कुछ दिनों गंगा किनारे अहिल्या घाट पर ठहरे।
इसके बाद उन्होंने एक संस्कृत के स्कूल में दाखिला ले लिया। पढ़ाई पूरी करने के बाद एक प्राथमिक स्कूल में उन्हें नौकरी मिल गई। यहीं उनका संपर्क उप-संपादक मुनेश्वर अवस्थी से हुआ।
इस तरह राजगुरू एक क्रांतिकारी संगठन में शामिल हो गए। राजगुरू एक ठोस चरित्र वाले और जल्द फैसला लेने वाले व्यक्ति थे।
वह अपना कोई भी काम ईमानदारी पूवर्क और बेहतर तरीके से करते थे। अपने क्रांतिकारी दल में उन्हें बहुत अधिक विश्वसनीय व्यक्ति माना जाता था। संगठन के काम में उन्हें महारत हासिल थी। वह खुद बिना खाए-पिए काफी दिनों तक रह सकते थे। लेकिन इस बात का विशेष ख्याल रखते थे कि उनका कोई साथी भूखा न रहे। अपने संगठन को मजबूत बनाने के साथ-साथ राजगुरू अपनी इकाई में सदस्यों की संख्या भी बढ़ाना चाहते थे।
वह सांडर्स के मारे जाने की घटना का वर्णन कर लोगों को क्रांति के प्रति प्रेरित किया करते थे।सीआईडी एजेंट शरत केशवर ने किसी तरह राजगुरू से दोस्ती कर ली। उसी समय राजगुरू ने बंबई के गवर्नर को मारने की योजना बनाई थी। लेकिन गवर्नर तक नहीं पहुंच पाने के कारण राजगुरू की यह योजना सफल नहीं हो सकी।
केशवर ने उन्हें धोखा दिया। सांडर्स की हत्या के बाद पुलिस ने अपना महाजाल पूरे देश में फैला दिया था। 30 सितंबर, 1928 को केशकर की सूचना पर पूना के एक मोटर गैराज से राजगुरू को गिरफ्तार का लिया गया।
अदालत में सांडर्स की हत्या के आरोप में भगत सिंह और सुखदेव के साथ RajGuru पर भी मुकदमा चलाया गया। 23 मार्च,1931 को देश महान सपूतों, RajGuru, भगत सिंह, और सुखदेव को सांडर्स की हत्या के आरोप में फांसी पर लटका दिया गया। मातृभूति के लिए बलिदान देकर भारत मां के तीनों सपूत अमर हो गए।