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भारत के ब्रांड एंबेसेडर ही बने रहें भारतवंशी तो बेहतर

न्यूजीलैंड के आम चुनाव में जैसिंडा आर्डर्न की लेबर पार्टी विजय रही है। उसे 49.1% वोट मिले हैं,जो कि करीब 64 संसद सीटों में तब्दील होंगे। 1946 के बाद से यह लेबर पार्टी का सबसे अच्छा प्रदर्शन है। वहीं, नेशनल पार्टी को मात्र 26.8% वोट मिले हैं और उन्हें करीब 35 सीटें मिलीं। वहां की संसद में 120 सीटें हैं।

न्यूजीलैंड चुनाव का एक भारतीय कोण भी रहा, जिसे भारतीय मीडिया ने कोई भी महत्व ही नहीं दिया। वहां जैसिंडा आर्डर्न की लेबर पार्टी की तरफ से मूल रूप से हिमाचल प्रदेश से संबंध रखने वाले डा0 गौरव शर्मा ईस्ट हेम्लिटन सीट से चुनाव जीत गए। वे लेबर पार्टी के सक्रिय नेता हैं। उनका परिवार हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर से है। 33 साल के डा0 गौरव शर्मा ने नेशनल पार्टी के उम्मीदवार एम0 टिम को लगभग 5 हजार मतों से हराया।

यह न्यूज़ीलैंड के हिसाब से बड़ा अंतर मन जायेगा। डा0 गौरव की छवि एक बेहद प्रखर वक्ता की है। वे न्यूजीलैंड में बसे भारतीय व अन्य देशों के नागरिकों के हितों के लिए लगातार संघर्ष करते रहे हैं। डा0 गौरव शर्मा के पिता 1996 में न्यूजीलैंड शिफ्ट कर गए थे। उम्मीद है कि उन्हें अब अपने देश की नई कैबिनेट में जगह मिलेगी। डा0 गौरव शर्मा जैसे भारतवंशी भारत के अन्य देशों में भी अनेकों ब्रांड एंबेसेडर हैं।

कोरोना से लड़ते गौरव शर्मा

वे जैसिंडा आर्डर्न को कोरोना से लड़ने के तरीके बताते रहे हैं। न्यूजीलैंड ने अभी तक कोरोना को दबाकर ही रखा है। वहां कोरोना पॉजिटिव सिर्फ 1800 केस आए हैं। एक्टिव केस देश में बमुश्किल 33 हैं और संक्रमण से करीब 25 मौतें ही हुई हैं। आम चुनाव में जैसिंडा आर्डर्न के नेतृत्व में लेबर पार्टी की विजय के लिए उनकी कोरोना पर काबू पाने की नीति को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है।

पर जहां न्यूजीलैंड की संसद में एक भारतीय रहेगा वहीं हालिया चुनाव में कंवलजीत सिंह बख्शी नाम के एक भारतीय मूल के एक अन्य उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा। वे नेशनल पार्टी के उम्मीदवार थे। न्यूजीलैंड में लेबर पार्टी और नेशनल पार्टी ही दो मुख्य दल हैं। राजधानी दिल्ली के गुरू हरिकिशन पब्लिक स्कूल और दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र रहे कंवलजीत सिंह की हार अप्रत्याशित मानी जा रही है।

56 साल के कंवलजीत 2008 से ही न्यूजीलैंड की संसद के सदस्य थे। उनका संबंध दिल्ली के एक कारोबारी परिवार से है। वे दिल्ली यूनिवर्सिटी से कॉमर्स की डिग्री लेने के बाद परिवार के बिजनेस से जुड़े गए थे। पर उनका मन नहीं लगा और वे 2001 में न्यूजीलैंड शिफ्ट कर गए। अपने वतन से हजारों मील दूर पराए मुल्क में जाने के सात सालों के बाद वे वहां सांसद भी बन गए।

उन्हें न्यूजीलैंड का पहला सिख सांसद होने का गौरव भी मिला। कंवलजीत 2011 में अपने नए देश के प्रधानमंत्री जॉन केय के साथ भारत भी आए थे। उन्हें 2015 में प्रवासी भारतीय सम्मान भी मिला था। लगता है कि न्यूजीलैंड में बख्शी लेबर पार्टी की आंधी के आगे अपने को संभाल नहीं सके और उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा।

सियासत में माहिर भारतवंशी

अब तो भारतवंशी अपने देश के साथ-साथ सात समंदर पार के देशों में भी चुनाव लड़ना पसंद करते हैं। वे भारत से बाहर जाकर नए देश की सियासत में आसानी से सक्रिय हो जाते हैं। न्यूजीलैंड इसका ताजा उदाहरण है। अब अमेरिका में भी चुनाव होने जा रहा है। वहां के चुनाव में सभी भारतीयों की एक दिलचस्पी इसलिए भी है क्योंकि भारतीय-अफ्रीकी मूल की कमला हैरिस बन सकती हैं अमेरिका की उपराष्ट्रपति। उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपना उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है। कमला का परिवार तमिलनाडू से है और उनकी मां श्यामला गोपालन ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से ही ग्रेजुएशन किया था।

इधर कुछ सालों में यह भी देखा जा रहा है कि अन्य देश में बस गए भारतीय मूल के लोग किसी एक दल या नेता के साथ नहीं होते। वे लगभग सभी दलों में होते हैं। इसका उदाहरण मारीशस से ले सकते हैं। वहां तो सभी प्रमुख दलों के नेता भी भारतवंशी ही होते हैं। एक तरफ जगन्नाथ तो दूसरी ओर रामगुलाम। न्यूजीलैंड में भी यही हुआ। वहां पर डा0 गौरव शर्मा और बख्शी अलग-अलग दलों से मैदान में थे। इसका मतलब यह हुआ कि वहां के भारतीयों के वोट भी बंटे ही होंगे।

इस बीच, इस साल के शुरू में ही लघु भारत कहे जाने वाले सूरीनाम में भारतवंशी चंद्रिका प्रसाद संतोखी को सूरीनाम का राष्ट्रपति चुन लिया गया। संतोखी ने पूर्व सैन्य तानाशाह देसी बॉउटर्स की जगह ली है, जिनकी नेशनल पार्टी ऑफ सूरीनाम (एनपीएस) संसदीय चुनावों में हारी। संतोखी देश के न्यायमंत्री व प्रोग्रेसिव रिफॉर्म पार्टी (पीआरपी) के नेता रहे हैं। पीआरपी मूल रूप से भारत वंशियों का ही प्रतिनिधित्व करती है। पीआरपी को सूरीनाम में यूनाइटेड हिंदुस्तानी पार्टी कहा जाता था। पर जानने वाले जानते हैं कि फीजी में भी बहुत से भारतवंशी नेशनल पार्टी ऑफ सूरीनाम (एनपीएस) के साथ थे।

अगर बात ब्रिटेन की मौजूदा संसद की कर लें तो वहां कुल 15 भारतवंशी सांसद हैं। इनमें से सात कंजरवेटिव पार्टी से और इतने ही लेबर पार्टी से हैं। एक लिबरल डेमोक्रेट पार्टी के टिकट पर विजयी रहा था। ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में कुल 650 सदस्य हैं। ब्रिटेन में करीब 15 लाख भारतीय मूल के लोग हैं। वहां 1892 में फिन्सबरी सेंट्रल से भारतीय मूल के दादाभाई नौरोजी पहली बार सांसद बने थे।

तो बात बहुत साफ है कि भारतीय जिधर भी हैं, वहां पर सक्रिय राजनीति तो कर ही रहे हैं। पर उनकी निष्ठा किसी एक दल विशेष के साथ नहीं होती। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। भारतीय जिन देशों में जाकर बसते हैं, वे वहां पर भारत के एक तरह से ब्रॉड एंबेसेडर ही होते हैं। पर कनाडा में कुछ हद तक स्थिति अलग है। वहां पर खालिस्तानी तत्व भारत को बदनाम करने की लगातार चेष्टा करते रहते हैं।

कनाडा के रक्षा मंत्री हरजीत सिंह सज्जन को ही ले लें। उनके कनाडा का रक्षा मंत्री बनने पर भारत में भी उत्साह का वातावरण सा बन गया था। सारे भारत को आमतौर पर तथा पंजाब और पंजाबियों को खासतौर पर गर्व का एहसास हो रहा था कि उनका ही बंधु सात समंदर पार जाकर इतने ऊंचे मुकाम पर पहुंच गया। लेकिन हरजीत सिंह सज्जन तो घोषित खालिस्तान समर्थक निकले। ऐसे छुपे रुस्तम ने तो भारतीयों का सिर शर्म से झुका दिया।

भारत सभी भारतवंशियों को दिल से चाहता है। लेकिन भारत उनके प्रति तो सख्त रवैया रखेगा ही जो अपने जन्म स्थान या पुरखों के देश के अपने स्वार्थ के लिये साथ गद्दारी करते हैं।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तम्भकार और पूर्व सांसद हैं)

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