संयुक्त राष्ट्र इब्राहीम धर्म पर कार्य करता है
अब्राहमिक रिलिजियनों की बात करें तो मोटे तौर पर तीन रिलिजियन समझा जाता है। इसमें यहुदी, क्रिश्चियनिटी व इस्लाम आता है। यहुदी अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन वे किसी का मतांतरित नहीं करते। वे दावा करते हैं कि इश्वर ने उन्हें विशेष रुप से तैयार किया है। लेकिन अन्य दो रिलिजियनों में उनके मत को न मानने वालों को मतांतरित करने को सबसे परम कर्तव्य माना जाता है।
इन सभी मजहबों का चिंतन मोटे तौर पर एक ही तरह का है। ये सभी अपने आप को श्रेष्ठ मानते हैं तथा उनके द्वारा बताये गये मार्ग को ही सही मानते हैं। ये सारे अब्राहमिक रिलिजयन को मानने वाले लोग अपने मूल एक स्थान से मानते हैं। वे अपने आप को ‘पीपुल आफ द बूक’ बताते हैं। यहुदी ओल्ड टेस्टामैंट को मानते हैं, जबकि ईसाई ओल्ड के साथ—साथ न्यू टेस्टामैंट को मानते हैं। इसलाम को मानने वाले ओल्ड व न्यू टेस्टामैंट को मानने के बजाय यद्यपि कुरान शरीफ को मानते हैं लेकिन वे उन्हें भी अपने आप को उसी धारा में जोडते हैं तथा इस्लामिक शासन व्यवस्था में यहुदी व ईसाईयों को सामान्य जजिया देकर अपने मजहबों के नियमों का पालन करने देने की की व्यवस्था रही है।
इसी तरह विश्व में गैर अब्राहमिक पंथों को मानने वाले काफी लोग हैं। इनमें से सर्वाधिक हिन्दू, बौद्ध, सिख आदि सर्वाधिक संख्या में हैं। इसके अलावा ईसाईयत व इसलाम के उदय से पूर्व विभिन्न देशों के मूल संस्कृति को मानने वाले लोग आज भी हैं। हालांकि भारी संख्या में मतांतरण के कारण इनकी संख्या काफी कम है।
संयुक्त राष्ट्रसंघ का गठन अब्राहमिक रिलिजियन के चिंतन के आधार पर हुआ है। यही कारण है कि अब्राहमिक रिलिजियन के लोगों के साथ कहीं विश्व में किसी प्रकार का अत्याचार होता है तो राष्ट्र संघ में इसे लेकर बहस शुरु हो जाती है और इस पर चिंता व्यक्त किया जाता है। लेकिन वहीं दूसरी तरफ गैर अब्राहमिक धर्मों को मानने वाले लोगों व उनकी संस्कृति पर हमला व अत्याचार होने पर राष्ट्र संघ में किसी प्रकार की सार्थक चर्चा होने का उदाहरण नहीं मिलता।
अमेरिका में अभी काफी कम संख्या में नेटिव इंडियन बचे हुए हैं लेकिन उनको भी अब्राहमिक रिलिजियन में मतांतरण का प्रयास जारी है। फिजी, सुरिनाम, गुवाना आदि देशों में हिदूओं व उनकी संस्कृति पर हमले होने पर राष्ट्र संघ में एक वाक्य भी नहीं बोला जाता है और न ही इस पर चर्चा होती है।
कम्युनिज्म वैसे तो उस मायने से रिलिजियन नहीं है लेकिन इसका चिंतन व व्यवहार अब्राहमिक रिलिजियनों से किसी प्रकार से कम नहीं है। इसका कारण है कि कम्युनिज्म को न मानने वालों को कम्युनिजम शत्रु घोषित कर देता है। कम्युनिज्म ने अनेक देशों के संस्कृति व परंपरा को नष्ट किया है। इसका सबसे बडा उदाहरण तिब्बत है। कम्युनिस्ट चीन तिब्बत को हडपने के बाद वहां की बौद्ध संस्कृति व पंरपरा को समाप्त करने के लिए गहरी साजिश करने के साथ—साथ आसुरी शक्ति का प्रयोग में लगा है। लेकिन चीन के साथ राजनीतिक कारणों से विभिन्न देश कभी—कभार संयुक्त राष्ट्र में यह मुद्दा उठाते हैं लेकिन बौद्ध मत व संस्कृति को सुनियोजित तरीके से समाप्त करने के साजिश को लेकर राष्ट्र संघ में चर्चा नहीं होती है।
पाकिस्तान में हिन्दू लडकियों के जबरन अपहरण व अधेड उम्र के लोगों के साथ जोर जबरदस्ती निकाह करवाये जाने के मामले लगातार आ रहे हैं। इसी तरह वहां के मंदिरों पर हमलों की खबरे भी आती रहती हैं। इसी तह बांगलादेश में भी इसी तरह की खबरें आती हैं, लेकिन कभी भी राष्ट्र संघ में इसे लेकर चिंता व्यक्त नहीं की जाती है।
राष्ट्र संघ के इस भेदभाव व पक्षपातपूर्ण रवैये को लेकर उसे कठघरे में खडा करना भारत का नैतिक दायित्व है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि गत सात दशकों से आजतक भारत अपने इस दायित्व का कभी निर्वहन नहीं कर पाया है। लेकिन वर्तमान में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि भारत ने पहली बार इस मुद्दे को राष्ट्र संघ में जोरदार तरीके से उठाने की कोशिश की है।
पिछले माह संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा की 75वें सत्र में भारत के प्रतिनिधि आशीष शर्मा ने इस मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया। उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा हिन्दू-बौद्ध-सिखों के प्रति लगातार हो रहे उत्पीडन व आक्रमण को स्वीकार करने में विफल रही है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अब्राहमित रिलिजियन जैसे यहुदी, ईसाईयत व इस्लाम विरोधी कृत्यों की निंदा करने की आवश्यकता है व भारत इस तरह की किसी भी प्रकार की कृत्यों की निंदा करता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि राष्ट्संघ केवल इन तीन अब्राहमिक रिलिजियन की ही बात करता है लेकिन हिन्दू-बौद्ध- सिखों के प्रति अत्याचार पर कोई बात नहीं होती है।
उन्होंने कहा कि शांति की संस्कृति केवल अब्राहमिक रिलिजियनों के लिए नहीं हो सकती। जब तक संयुक्त राष्ट्र में यही चलता रहेगा तब तक विश्व में शांति की संस्कृति को प्रोत्साहन नहीं दिया जा सकता। पहली बार भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ को उसके दोहरेपन को लेकर आईना दिखाया है।
भारत के प्रतिनिधि ने आफगानिस्तान के बामियान में भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमाओं को तोडे जाने से लेकर अफगानिस्तान के गुरुद्वारों बमबारी की बातों का भी उल्लेख किया। इसी तरह अन्य देशों में हिन्दू-बौद्ध मंदिरों को तोडे जाने, उन्हें आग के हवाले किये जाने आदि घटनाओं का उल्लेख करते हुए राष्ट्रसंघ की भूमिका को कठघरे में खडा किया। 193 देशों वाले इस महासभा में भारत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि राष्ट्र संघ में अब्राहमिक रिलिजियनों के मामले हमलों पर चर्चा होती है वहीं हिन्दू-बौद्ध व शिखों पर हमले पर चर्चा नहीं होती।
वास्तव में देखा जाए तो भारत विश्व की सबसे पुरातन सभ्यता है। अतः स्वाभविक रुप से गैर अब्राहमिक धर्मों के प्रति अत्याचार व उत्पीडन की बातों को उठाना भारत का नैतिक दायित्व है। भारत इन समस्त पुरानी सभ्यता व संस्कृति के लोगों का प्रवक्ता बन सकता है।
यह अत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि इस मामले को लेकर भारत सरकार के रुख में पहली बार परिवर्तन आया है। अब तक भारत के प्रतिनिधि राष्ट्रसंघ में अपनी ही बात उठाते रहे थे। लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद भारत सरकार ने विश्व में रहने वाले हिन्दू-बौद्ध-शिखों की बातों को उठाना शुरु किया है। यह भारत की नीति में बडा बदलाव है। भारत के इस नये नैरेटिव को आगे बढाने की आवश्यकता है। राष्ट्रसंघ खुले तौर पर केवल अब्राहमिक रिलिजियनों का समर्थक बना हुआ है तथा गैर आब्रहामिक रिलिजियनों के साथ भेदभाव व पक्षपात हो रहा है। भारत सरकार के रुख में परिवर्तन स्वागतयोग्य है। आगामी दिनों में भारत को अब्राहमिक रिलिजियनों के शोषण व अत्याचार के शिकार होने वाले प्रत्येक पुरानी संस्कृति को मानने वाले लोगों का नेतृत्व करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
डॉ0 समन्वय नंद