
ममता से क्यों नहीं खत्म हो रहा कांग्रेस का मोह
देश में 1 केंद्र शासित प्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनावी घमासान जारी है। 2 मई को इन पांचों राज्यों के नतीजे आ जाएंगे जिसके बाद यह पता चल जाएगा कि यहां किसकी सरकार बनी। लेकिन सबसे ज्यादा निगाहें पश्चिम बंगाल पर है। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव तीन मोर्चों के बीच लड़ा जा रहा है। पहला तृणमूल कांग्रेस, दूसरा भाजपा और तीसरा वाम-कांग्रेस नेतृत्व वाला गठबंधन। लेकिन मुख्य मुकाबला भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच में दिखाई दे रहा है।
बात तीसरे मोर्चे की करें तो भले ही कागजों पर समीकरण के हिसाब से यह चुनौती दे सकता है परंतु ऐसा लग रहा है कि यह गठबंधन ममता बनर्जी के विकल्प के तौर पर उभरने की बजाए भाजपा को हराने में ज्यादा विश्वास रख रहा है। अगर यह गठबंधन खुद को उभारने की कोशिश में होता तो वह जमकर मजबूती के साथ चुनाव प्रचार में अपनी ताकत दिखाता। लेकिन ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा। इस गठबंधन में शामिल लेफ्ट अपने सीमित संसाधनों का ही इस्तेमाल करके खुद को मजबूत करने की कोशिश कर रहा है। वही कांग्रेस आलाकमान की दिलचस्पी पश्चिम बंगाल चुनाव में नहीं दिखाई दे रही है। तभी तो पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी बंगाल से दूरी बनाए हुए है।
राजनीतिक गलियारे में कांग्रेस के इस रवैए पर सवाल उठाए रहे है। साथ ही साथ अब गठबंधन के भीतर भी सवाल उठने लगे है। गठबंधन में शामिल इंडियन सेकुलर फ्रंट ने तो सीधे-सीधे कांग्रेस के इस रवैये पर आपत्ति दर्ज करा दी है। वहीं, अगर लेफ्ट से इस बारे में सवाल पूछा जा रहा है तो उनकी तरफ से यही जवाब आ रहा है कि आप कांग्रेस के नेताओं से पूछो। आखिर कांग्रेस का बंगाल से दूरी बनाने की वजह क्या है?
तो आपको बता दें कि बंगाल के चुनावी नतीजे कांग्रेस को दीवार पर लिखी इबारत जैसी ही नजर आ रही है क्योंकि वह मान के चल रही है कि उसकी पार्टी का प्रदर्शन यहां अच्छा रहने वाला नहीं है। ऐसे में कांग्रेस ममता बनर्जी से दुश्मनी नहीं करना चाहती। कांग्रेस को लगता है कि अगर भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की जरूरत पड़ी तो ममता बनर्जी उस में अहम भूमिका निभा सकती हैं।
ऐसे में इस बार कांग्रेस का ममता बनर्जी से दुश्मनी कहीं उस वक्त भारी न पड़ जाए। कांग्रेस का यही रवैया 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में देखा गया था। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा गठबंधन का हिस्सा कांग्रेस नहीं बनी।
लेकिन उसके नेता यह कहते हुए सुनाई देते रहे कि भाजपा को हम हराए या फिर बसपा और सपा वाला गठबंधन, बात एक ही है। शायद यही फार्मूला पार्टी पश्चिम बंगाल में लगा रही है। यहां भी पार्टी यह मानकर चल रही है कि भाजपा को तृणमूल हराए या फिर कांग्रेस बात एक ही है।
वर्तमान के चुनाव में देखें तो कांग्रेस उन राज्यों में ज्यादा सक्रिय है जहां वह मुख्य मुकाबले में है जैसे कि असम और केरल। हालांकि, इन दोनों राज्यों में भी वह बैसाखी के सहारे पर है लेकिन नेतृत्व उसी के पास है। इन दोनों राज्यों में अगर कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की जीत होती है तो मुख्यमंत्री कांग्रेस का ही होगा। लेकिन पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में कांग्रेस के लिए भूमिका बिल्कुल अलग है।
कांग्रेस इन दोनों राज्यों में लेफ्ट और डीएमके के ऊपर निर्भर है। इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस अपनी ताकत झोंकने की बजाय अपने सहयोगियों पर ज्यादा निर्भर कर रही है। राजनीतिक विश्लेषक पश्चिम बंगाल से कांग्रेस की दूरी की एक और वजह बता रहे हैं। यह वजह है केरल। दरअसल, जहां पश्चिम बंगाल में कांग्रेस लेफ्ट के साथ गठबंधन में है। वहीं केरल में कांग्रेस का मुख्य मुकाबला ही लेफ्ट से है।
ऐसे में कांग्रेस के लिए मुश्किल यह थी कि केरल में जाए तो वाम के खिलाफ कैसे बोले और पश्चिम बंगाल में आएं तो वाम के साथ कैसे दिखे। यही कारण रहा कि कांग्रेस की ओर से ज्यादा ध्यान केरल पर दिया गया। केरल की सरकार पर निशाना साधने में ज्यादा विश्वास दिखाया गया। अब जब 6 अप्रैल को केरल में चुनाव खत्म हो जाएंगे तो शायद कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व पश्चिम बंगाल में सक्रिय हो सकेगा। हालांकि राजनीतिक विश्लेषक यह भी कहते हैं कि अगर कांग्रेस इस रणनीति के तहत आगे बढ़ रही है तो उसके लिए यह नुकसानदायक साबित हो सकता है।
लेकिन यह बात सच है कि कांग्रेस की ओर से पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को लेकर सॉफ्ट कॉर्नर दिखाया जा रहा है। पश्चिम बंगाल राज्य नेतृत्व भी ममता बनर्जी के खिलाफ ज्यादा कुछ नहीं बोल रहा। लेकिन यह भी बात सही है कि कांग्रेस के लिए यह सवाल हमेशा बना रहेगा कि आखिर जिस पार्टी के साथ वह पश्चिम बंगाल में मिलकर चुनाव में थे उसी पार्टी के खिलाफ केरल में क्यों चुनाव लड़ रही थी? बिहार में भी कांग्रेस और लेफ्ट एक साथ है।
हालांकि, कांग्रेस से उसकी सहयोगी पार्टियों का विश्वास उठता जा रहा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था और उसे 114 सीट दे दी थी। लेकिन जब नतीजे आए तो अखिलेश यादव ने माना कि कांग्रेस को इतनी ज्यादा सीटें देने का उनका फैसला गलत था। इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में भी हमने देखा कि कैसे आरजेडी ने कांग्रेस को 70 सीटें दी थी लेकिन नतीजे बिल्कुल विपरीत रहे। कांग्रेस सिर्फ 19 सीटें ही जीत पाई।
आरजेडी ने तो यह तक कह दिया कि कांग्रेस ने उन्हें बर्बाद कर दिया। तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के लिए जब कांग्रेस की बात डीएमके से चल रही थी तो कांग्रेस ने वहां लगभग 50 सीटों की मांग की थी। 2016 में डीएमके ने कांग्रेस को 41 सीटें दी थी। लेकिन इस बार डीएमके ने सीटों की संख्या कम कर के महल 25 कर दी है। कांग्रेस का अगर ऐसा ही रवैया जारी रहता है तो यह दिन भी दूर नहीं जब क्षेत्रीय दलों का उससे विश्वास खत्म हो जाएगा।