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अरहर दाल की कीमतों में ही क्यों लग जाती है आग? ऐसे बन जाता है महंगाई का विलेन

अरहर की दाल खुदरा बाज़ार में 180 रुपए प्रति किलो है. मूंग, मसूर और उड़द की कीमत इससे थोड़ा कम है, लेकिन वह भी मिडिल क्लास के घरों का बजट बिगाड़ रही है.

देश के हर क्षेत्र में दाल खाई ही जाती है, क्योंकि शाकाहारियों के लिए दिन में एक बार दाल खाना ज़रूरी है.

अंडा या मांस खाने वालों को तो प्रोटीन इनके जरिए मिल जाता है पर शाकाहारियों के लिए दाल के अलावा प्रोटीन पाने का और कोई स्रोत नहीं है।

चूंकि भारत के एक बड़े इलाके का मुख्य भोजन चावल है। इसलिए प्रोटीन के लिए या तो मछली खाई जाए अथवा दालें।

इसी तरह जिन इलाकों का मुख्य भोजन रोटी है वहां पर भी मांसाहारी मटन अथवा चिकेन खाकर प्रोटीन का अपना कोटा पूरा कर लेते हैं.

मगर शाकाहारी क्या करें? यही कारण है कि दाल यहां के भोजन का मुख्य आहार है. मगर अब तो मांसाहारी भी मटन या चिकेन के साथ दाल भी खाते हैं. इसलिए भी दाल की खपत बढ़ती ही जा रही है।

अभी चार दशक पहले तक अरहर की दाल सिर्फ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में ही खाई जाती थी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब में अरहर की दाल दुर्लभ थी.

वर्ष 1983 में मैं जब जनसत्ता में नौकरी करने आया, तब दिल्ली में कहीं भी अरहर की दाल नहीं मिलती थी. किसी भी ढाबे या कैंटीन में या तो चना-उड़द की दाल मिलती अथवा पीली दाल के नाम पर धुली मूंग की दाल. मैं चूंकि कानपुर से आया था।

इसलिए बिना अरहर की दाल के मुझे भूखे रहना पड़ता. एक महीने के भीतर ही मैं जनसत्ता छोड़ कर चला गया.

जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी को यह बात पता चली तो उन्होंने एक व्यक्ति को दिल्ली से कानपुर भेज कर मुझे बुलवाया और नौकरी छोड़ने की वजह पूछी.

मैंने अरहर की दाल न मिलने की समस्या बतायी. उन्होंने मेरे रहने की व्यवस्था राजघाट स्थित गांधी स्मृति के अतिथि गृह में रुकवाया, जहां का दक्षिण भारतीय महराज (कुक) दोनों समय अरहर की दाल बनाता ही था.

तब पता चला कि तमिलनाडु के लोग भी अरहर के दीवाने है।

अरहर की दाल एक तो हल्की है, दूसरे इसका स्वाद भी बेमिसाल. इसमें प्रोटीन भी पर्याप्त होता है. इसीलिए इसको चावल के साथ अवश्य खाया जाता है.

हालांकि पनीर और दूध भी प्रोटीन की भरपाई करते हैं, मगर एक तो पनीर शहरी इलाकों में ही मिल पाता है और मौसम के गरम होते ही उसके खराब हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है।

एक मोटे अनुमान के अनुसार पूरे भारत में दालों की खपत लगभग 3.2 करोड़ टन प्रति वर्ष है. इसमें से 2.79 करोड़ टन तो घरेलू उत्पादन है और 50 लाख टन दालों को आयात करना पड़ता है।

अकेले अरहर की दाल की खपत ही 45 लाख टन है, जबकि उत्पादन 34.22 लाख टन है। कानपुर के दलहन अनुसंधान संस्थान के विजन रिपोर्ट बताती है कि आने वाले डेढ़ दशक में यह खपत करीब एक करोड़ टन और बढ़ जाएगी.

हालांकि ऐसा नहीं है कि दलहन की खपत और उसका रकबा नहीं बढ़ा है. हालिया रिसर्च बताती हैं कि दलहन का रकबा भी बढ़ा है और उसकी उपज भी पिछले तीस वर्ष में लगभग दो गुनी हुई है. यानी दाल की खपत का ग्राफ रुक नहीं रहा है।

शाकाहारियों के लिए प्रोटीन का अकेला स्रोत

दालों में प्रोटीन की मात्रा इतनी ज्यादा होती है कि चावल या गेहूं उस मात्रा में प्रोटीन मुहैया नहीं करा पाते. प्रति सौ ग्राम पकी दाल में प्रोटीन 6.8 प्रतिशत होता है, जबकि चावल में महज 2.7 प्रतिशत दालों में भी सोयाबीन में यह मात्रा 16.6 प्रतिशत होती है और अंडे में 12.6 तथा पके हुए चिकेन में 26.6 प्रतिशत. जाहिर है दालें प्रोटीन से भरपूर होती हैं

ऐसे में शाकाहारियों के लिए दाल का भला विकल्प और क्या हो सकता है?

कुछ लोग कहते हैं, दाल से वात रोग हो जाता है इसलिए पतली दाल खानी चाहिए. यह एक हद तक सच है और यह विज्ञान सम्मत तथ्य है कि अत्यधिक प्रोटीन शरीर में वायु अथवा गैस को बढ़ाता है.

इसीलिए रात के वक्त दाल खाने की मनाही है. मगर पतली दाल में प्रोटीन की मात्रा भी कम ही होगी जबकि एक शाकाहारी व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए दिन भर में कम से कम बीस ग्राम प्रोटीन तो लेना ही चाहिए।

अरहर पर मार ज़्यादा

जब सौ ग्राम दाल में यह सिर्फ 6.8 प्रतिशत है और सौ ग्राम दाल दिन भर में कोई खाता नहीं है तब यह मात्रा कैसे पूरी होगी. जाहिर है कुछ अन्य स्रोतों से भी.

मसलन फलों से, सब्जियों में बीन्स से, गेहूं व चने से. इसीलिए गेहूं के आटे में चने का आटा मिलाने की परंपरा है. पर इधर पिछले कुछ वर्षों में दाल खाने के मामले में हिंदुस्तानी काफी चूजी हो गए हैं।

सिर्फ एक ही दाल अब खाई जाने लगी है और वह है अरहर की दाल. जहां अभी कुल बीस वर्ष पहले में उत्तर प्रदेश के मध्यवर्ती क्षेत्र को छोड़कर बाकी इलाकों के लोग अरहर नहीं खाते थे वे भी अब अरहर की दाल को पसंद करने लगे हैं.

इसका नतीजा यह हुआ कि दालों में अरहर की बाजार कीमतें आसमान पर चढ़ गई हैं. पिछले वर्ष जो अरहर बाजार में 125 रुपये प्रति किलो के बीच आसानी से मिल जाती थी वह अब दो सौ को छूने लगी है।

अन्य दालें अपेक्षाकृत सस्ती

दाल की कीमतों में यह इजाफा बस अरहर के मामले में ही दिखाई देता है. अन्य दालें इतनी मंहगी नहीं हुईं. आज भी मसूर सवा सौ रुपये किलो के आसपास है तो उड़द डेढ़ सौ रुपये किलो और मूंग का भाव भी यही है.

चना दाल तो 100 से 110 के बीच आसानी से मिल जाती है। अन्य दालें मसलन- लोबिया, काबुली चना और सोयाबीन भी अपने पूर्ववर्ती कीमतों पर ही मिल जाती हैं।

अगर दालों पर यह एकाधिकार समाप्त हो जाए तो शायद अरहर की भागती कीमतों पर अंकुश पाया जा सकता है.

यूं आयुर्वेद में अरहर की दाल हड्डी रोगियों को मना की जाती है और इसकी वजह है उसमें वायु तत्त्व की प्रचुरता मसूर और उड़द में तो यह तत्त्व बहुत ज्यादा होता है. यही कारण है कि धीरे-धीरे इन दालों को रोजाना के भोजन से हटाया जाने लगा।

अरहर स्वाद में लाजवाब

अब तो अरहर की दाल अन्य दालों की तुलना में ज्यादा इस्तेमाल की जाने लगी है. चने की दाल को गलाना कठिन होता है और सोयाबीन में लिसलिसापन अधिक होता है.

इसलिए प्रोटीन अधिक होने के बावजूद ये दालें रोज की थाली से गायब होने लगीं और अरहर दोनों समय खाई जाने लगी. मूंग की दाल को हल्का माना गया है.

यानी यह अकेली दाल है जिसमें वायु तत्त्व कम होता है। इसीलिए यह दाल शाम को खाई जाने लायक बताई गई है और जिन्हें पेट के रोग होते हैं उनके लिए तो यह दाल मुफीद है.

मगर स्वाद न होने तथा किसानों द्वारा इसे बोने में दिलचस्पी नहीं लेने के कारण बाजार में इस दाल की बिक्री में कोई उछाल कभी नहीं आया।

साल में एक उपज

अब हायब्रिड अरहर की फसल साल में दो बार होती है. इसकी फसल कुल 150 दिनों में पक जाती है। इसके अलावा अरहर की फसल पानी कम मांगती है और भारत के किसानों के लिए वह फसल बोना कभी असुविधाजनक नहीं रहा जो कम पानी मांगती हो।

मगर पिछले दो वर्ष से जो सूखा पड़ा है और मार्च व अप्रैल की बरसात ने फसल जिस तरह से नष्ट की है उससे दलहन की फसल सबसे ज्यादा खराब हुईं.

अकेले अरहर पर ही बीस लाख टन का टोटा आया है. ऐसे में दाल आसानी से मिलने वाली नहीं. यह अलग बात है कि सरकारें जमाखोरों पर जोर डालकर और दालें आयात कर इस कमी को कुछ हद तक पूरा कर लें।

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