एनालिसिस

Rural Banking के कर्णधार हैं खूनचूसू साहूकार

भारत की आर्थिक नीतियों को कन्ट्रोल करने वाला भारतीय रिजर्व बैंक ऑटोनामस संस्थान, यदि किसी की चिन्ता कर रहा है, तो वे हैं देश के कार्पोरेट घराने और कामर्शियल एवं प्राइवेट बैंक्स। इस देश की गरीब जनता को यदि कर्ज के नाम पर गुलाम बनाने की कोई सुविधा उपलब्ध भी करा रहा है तो वे हैं गॉव के कोने-कोने में फैला हुया साहूकारों का जबरदस्त नेटवर्क। जिन्हें साहूकारों का जाल कहा जाये तो ज्यादा बेहतर होगा।

एक-एक साहूकार, बैंक की एक-एक ब्रान्च के बराबर है। जिनकी संख्या सैकड़ों, हजारों में ना होकर लाखों में है। उनका कारोबार भी लाखों हजार करोड़ रुपयों का है। इस पर आश्चर्य केवल उसे ही हो सकता है जिसे इस सच्चाई का पता ही ना हो अथवा जो सच्चाई को जानते हुए भी जानबूझकर इसे स्वीकार करने की हिम्मत ना रखता हो।
ग्रामीण बैंकिंग (Rural Banking) के विकास के जितने भी दावे किये जायें, लेकिन यह एक कटु सत्य है कि निम्न आय वर्ग की करोडों जनता को जब भी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। तो उनका एक मात्र सहायक और मददगार साबित होते हैं, यही खूनचूसू साहूकार। यह अलग बात है कि ये साहूकार उस ऋणी एवं उसके परिवार का खून ही चूस लेते हैं, बल्कि उसे पूरे परिवार सहित आत्महत्या तक कर लेने पर मजबूर कर देते हैं। ये वार्षिक ब्याजदर जितना भी प्रतिशत चाहें वसूलने से चूकते नहीं हैं। इन साहूकारों पर देश का कोई भी, किसी भी प्रकार का कानून लागू नहीं होता है।
देश के कोने-कोने में साहूकार मौजूद हैं। जबकि देश को आजाद हुए सात दशक से ऊपर होने को आये, इसके बाद भी क्या ग्रामीण बैंकिंग (Rural Banking) के विकास के लिए गॉंव-गॉव बैंक की शाखा खोलने में भारतीय रिजर्व बैंक ने दिलचस्पी दिखाई ?क्या देश में स्थापित सरकारों ने इसमें कोई दिलचस्पी दिखाई? कदापि नहीं, क्योंकि उसका इरादा ही ऐसा नहीं है। नोटबन्दी ने बता दिया कि भारत के गांव कितने हैं और बैंक की ग्रामीण इलाकों में शाखायें कितनी हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक का ध्यान केवल स्वदेशी नॉन बैंकिंग संस्थाओं पर दादागिरी करने और कार्पोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने तक ही सीमित है। देश में क्रेडिट गैप को किस तरह पूरा किया जाये और बैंकों के प्राथमिकता सेक्टर में कौन से क्षेत्र डाले जायें इससे उसका रत्ती भर का भी लेना-देना नहीं है। यह केन्द्र सरकार की समस्या हो सकती है, वह तो ऑटोनामस संस्थान है, इसलिए मनमर्जी करना उसका पहला और परमसिद्व अधिकार है।

गॉंव की ओर रुख करने से पहले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ही बैंकिंग जगत की हालात से आपको रूबरू कराते हैं। बैंक चाहे प्राइवेट सेक्टर का हो या वाणिज्यिक, ये बैंकें, पत्रकार, वकील और पुलिस वालों तक को कर्ज देने को, अपनी इन्टरनल पालिसी की निगेटिव लिस्ट में रखती हैं। इस लखनऊ क्या पूरे देश का मुश्किल से प्वांइट एक प्रतिशत पत्रकार होगा जो शायद पत्रकार बताकर बैंक से कर्ज पा गया हो।
वरना कर्ज पाना उसके लिए टेढ़ी खीर है। वकीलों में भी लोअर कोर्ट का वकील शायद ही कर्ज पा सका हो। कमोबेश यही हाल पुलिस वालों का भी है। यहां बात मालिक-कम-पत्रकार, हाईकोर्ट के वकील और पुलिस के आईपीएस अधिकारियों की नहीं की जा रही है। क्योंकि ये तो इलीट क्लास में आते हैं। एक बडे समाचार पत्र के वरिष्ठ पत्रकार जिनका अपना एक जबरदस्त नेक्सस है, और जिनकी तूती बोलती है।
वह भी अपने नाम से कार का लोन पाने में असमर्थ रहने के पश्चात अपने पिता (जो कि सरकारी टीचर हैं) के नाम से ही कार का लोन पा सके। यह हाल है समाज के इन रसूखदार लोगों का, तो भारत की दीन-हीन निरीह, निम्न आय वर्ग वाली आबादी को कैसा लोन, कहॉं का लोन! और किसलिए लोन?
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इन खास श्रेणी के प्वाइंट एक प्रतिशत लोगों को भी यदि किसी बैंक ने कर्ज दे दिया हो तो बड़े अचम्भे की बात है। अगर ऐसा हुआ भी होगा, तो उस ग्राहक की क्रेडिबिलिटी इतनी गजब की होगी कि उसे कर्ज देने से इंकार करना उस बैंक के स्वयं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक दिखाई दिया होगा। तभी उस पत्रकार को कर्ज दिया गया होगा, वरना 365 घूमते हैं, बैंक वालों के सामने।

नान गजेटेड पुलिस वालों को भी बैंकें पतली गली का राश्ता दिखाने से नहीं चूकती हैं। कमोबेश यही हाल लोअर कोर्ट के वकीलों का भी है, लेकिन वक्त पड़ने पर इन बैंकों की खिदमत में ये सारा तबका बड़ी मुस्तैदी से अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए तैनात रहता है। नोटबन्दी के दौरान आपने बैंक वालों और बैंकों की ईमानदारी के किस्से पढ़े ही होंगे। कितनी ही बैंकें और उनके कर्मचारी अभी भी जाॅंच के घेरे में हैं।………………..जारी……

 

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