धार्मिक

अथ श्री महाभारत कथा- जानिये भाग-3 में क्या क्या हुआ

ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् | देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॐ
अथ श्री महाभारत कथा अथ श्री महाभारत कथा

कथा है पुरुषार्थ की ये स्वार्थ की परमार्थ की

सारथि जिसके बने श्री कृष्ण भारत पार्थ की

शब्द दिग्घोषित हुआ जब सत्य सार्थक सर्वथा

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत

अभ्युत्थानमअधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम

धर्म संस्थापनार्थाये संभवामि युगे युगे।।

भारत की है कहानी सदियो से भी पुरानी

है ज्ञान की ये गंगाऋषियो की अमर वाणी

ये विश्व भारती है वीरो की आरती है

है नित नयी पुरानी भारत की ये कहानी

महाभारत महाभारत महाभारत महाभारत।।

पिछले अंक में हमने पढ़ा था कि— ऋषि किंदम ने महाराज पाण्डु को यह शाप दे दिया था कि जब भी वह अपनी किसी पत्नी के अत्यधिक निकट जाने की कोशिश करेंगे तभी उनकी मृत्यु हो जाएगी।

पांडव और कौरवों का जन्म

महाराज पाण्डु ऋषि किंदम के शाप के कारण अत्यंत दुखी हो गए। वे कभी अपनी पत्नियों के अत्यधिक निकट नहीं जाते थे। ऐसे में जब संतान उत्पत्ति की बात आई, तब कुंती ने महाराज पाण्डु से कहा कि ऋषि दुर्वासा की सेवा करने पर उन्होंने मुझे देव पुत्रों के जन्म का आशीर्वाद दिया था। यानि मैं जिस देवता का स्मरण करूंगी।

मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। कहते है इसी प्रकार जब रानी कुंती ने यम देवता का स्मरण किया तब युधिष्ठिर ने जन्म लिया, पवन देव के आशीर्वाद से भीम ने जन्म लिया, इंद्र देवता के आशीर्वाद से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। उधर, रानी माद्री ने भी रानी कुंती से उनके लिए पुत्र उत्पन्न करने को कहा।

जिस पर रानी कुंती ने अश्विन देवता को याद करके नकुल और सहदेव को जन्म दिया। रानी कुंती और माद्री ने पांचों पाण्डु पुत्रों की देखभाल की।

एक बार जब महाराज पाण्डु ध्यान में लीन थे। तब रानी माद्री नदी से स्नान करके लौट रही थी। जिन्हें देखकर महाराज पाण्डु स्वयं को रोक नही सके। और वह रानी माद्री के पास जाकर उनके गले लग गए। लेकिन ऋषि किंदम के श्राप के चलते तुरंत उनकी मृत्यु हो गई।

इसी दौरान स्वयं को दोषी मानते हुए रानी माद्री ने भी आत्मदाह कर लिया। जिसके बाद पांचों पांडवों की परवरिश की जिम्मेदारी रानी कुंती पर आ गई। उधर, जब हस्तिनापुर राज्य को महाराज पाण्डु की मृत्यु का समाचार मिला, तब भीष्म (देवव्रत) ने कुंती और पांचों पांडवों को राजमहल वापिस बुला लिया। महाराज पाण्डु की मृत्यु के बाद महाराज धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का कार्यभार सौंपा गया।

आपको बता दें कि जब पांडवों का जन्म हुआ था, उसी वक्त महल में महाराज धृतराष्ट्र और रानी गांधारी ने 100 पुत्रों और 1 कन्या को जन्म दिया था। रानी गांधारी के 100 पुत्रों का जन्म कुछ इस प्रकार से हुआ था। कहा जाता है कि जब रानी गांधारी गर्भवती थी, तब उन्हें महर्षि वेदव्यास का आशीर्वाद मिला था। जिसके चलते वह लगभग 2 सालों तक गर्भवती रही।

ऐसे में उनका गर्भ जब लोहे की तरह कठोर हो गया। तब उन्होंने भय के कारण अपना गर्भ गिरा दिया। और जब महर्षि वेदव्यास को यह बात पता चली तो वह काफी क्रोधित हुए। और उन्होंने रानी गांधारी को यह आदेश किया कि वह तुरंत सौ कुंडों की स्थापना कराएं। और जल्द से जल्द उन कुंडों में गर्भ से निकले मांस के टुकड़ों को डाल दें।

महर्षि वेदव्यास के कहेनुसार रानी गांधारी ने ठीक वैसा ही किया। जिससे रानी गांधारी को दुर्योधन, दुशासन समेत 100 पुत्रों और 1 पुत्री दुशाला की प्राप्ति हुई। इसके अलावा महाराज धृतराष्ट्र के एक दासी के साथ अनैतिक संबंधों के चलते एक बालक ने जन्म लिया। जिसका नाम युयुत्सु था। जिसने महाभारत का युद्ध पांडवों की ओर से लड़ा था।

कौरवों और पांडवों की शिक्षा

उधर, राजमहल पहुंचते ही भीष्म (देवव्रत) ने कुलगुरु कृपाचार्य को पांडवों और कौरवों का गुरु नियुक्त कर दिया। कृपाचार्य और उनकी बहन कृपि महाराज शांतनु को आखेट के दौरान जंगल में लावारिस मिले थे, जिनको वह अपने संग राजमहल ले आए थे।

और वह अपने आश्रम में पांडवों और कौरवों को शिक्षा दीक्षा दिया करते थे। अब कुलगुरू कृपाचार्य राजमहल के भी मुख्य व्यक्ति थे, इसके चलते उनका अधिकतर समय राजमहल के कार्यों में व्यस्त रहा करता था। ऐसे में भीष्म (देवव्रत) ने गुरु द्रोणाचार्य को पांडवों और कौरवों का गुरु नियुक्त किया। गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन से हुआ था। वह गुरु परशुराम के शिष्य और एक महान धनुर्धारी थे।

जहां एक ओर पांडवों और कौरवों की शिक्षा चल रही थी, तो वही महल में चिंता का विषय यह बना हुआ था कि हस्तिनापुर का युवराज कौन होगा? सही मायनों में तो यह पद महाराज पाण्डु के ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर को मिलना चाहिए था।

लेकिन महाराज धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को बचपन से यही बताया गया था कि वह हस्तिनापुर का युवराज होगा। ऐसे में यह निश्चित किया गया कि जो राजकुमार आगे चलकर स्वयं को सिद्ध करेगा, वही हस्तिनापुर की राजगद्दी को संभालेगा। इस बात ने कौरवों और पांडवों के मध्य सदा ही खींचतान पैदा कर दी और उनके मध्य प्रारंभ से ही दूरियां बढ़ने लगी।

जहां कौरव सदैव ही पांडवों को नीचा और लज्जित करने का अवसर ढूंढा करते थे, तो वही पांडव अपने ज्येष्ठ भाई युधिष्ठिर की बात मानकर सदैव शांत हो जाया करते थे। इस प्रकार, कौरवों और पांडवों के बाल्यकाल के कई ऐसे प्रसिद्ध किस्से हैं, जिनमें उनके मध्य द्वंद की स्थिति देखी गई। जिनमें भीम और दुर्योधन का नागलोक वाला किस्सा मशहूर है।

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