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जनसंख्या पर कोई बात होगी या नहीं

जीवन में किसी भी चीज की अति बहुत ही बुरी होती है। वास्तव में जीवन के लिए हर चीज उतनी ही जरूरी है जितने से सब कार्य सुचारू रूप से चल सके वरना अति मनुष्य के विकास में बाधक हो जाती है।

कुछ ऐसा ही इस समय हमें भारत में जनसंख्या के संदर्भ में देखने को मिल रहा है,जहाँ पर जनसंख्या विस्फोटक स्थिति में पहुँच गई है। 1800 ईसवीं तक विश्व की आबादी को एक बिलियन (अरब) तक पहुँचने में लाखों साल लगे। उसके बाद यह सिर्फ 100 वर्षों के भीतर ही दोगुनी हो गई और जल्द ही सात बिलियन तक पहुँच गई। जैसे कि यह स्पष्ट है साल 1901 में हमारी जनसंख्या 23 करोड़ थी। जो 2001 में 100 करोड़ हो गई और 2019 तक 135 करोड़।

हमारी जनसंख्या औसतन 16% प्रतिशत हर दशक के दर से बढ़ती जा रही है। परिवार नियोजन के कमजोर तरीकों, अशिक्षा, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की कमी,अंधविश्वास एवं मजहबी सोच को ढाल बनाकर और सामाजिक असंतुलन के कारण जनसंख्या विस्फोटक होती जा रही है।इसी दर और ऐसे ही कारणों के हिसाब से हम 2024 तक 150 करोड़ हो जाएंगे।

इतनी बड़ी जनसंख्या को भोजन मुहैया कराने के लिए यह आवश्यक है कि हमारा खाद्यान्न उत्पादन भी तेजी से बढ़े, लेकिन ऐसा नहीं है। बढ़ती आबादी के चलते बड़े पैमाने पर बेरोजगारी तो पैदा हो ही रही है, कई तरह की अन्य आर्थिक और सामाजिक समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। हमारे समक्ष पहले से ही अनेको समस्याएँ चुनौती बनी हुई है। जहाँ एक अरब भारतीयों के पास धरती, खनिज, साधन आज भी वही हैं जो 50 साल पहले थे, परिणामस्वरूप लोगों के पास जमीन कम, आय कम और समस्याएँ अधिक बढ़ती जा रही हैं।

भारत के पास विश्व की समस्त भूमि का केवल 2.4 प्रतिशत भाग ही है जबकि विश्व की जनसंख्या की तकरीबन 17 प्रतिशत जनसंख्या भारत में निवास करती है। जनसंख्या में वृद्धि होने के साथ−साथ प्राकृतिक संसाधनों पर और भार बढ़ रहा है। स्थिति यही रही तो जनसंख्या दबाव के कारण कृषि के लिए व्यक्ति को भूमि कम उपलब्ध होगी जिससे खाद्यान्न,पेय जल की उपलब्धता पर प्रभाव पड़ेगा,इसके अलावा लाखों लोग स्वास्थ्य और शिक्षा के लाभों एवं देश के लिए मानव संसाधन के तौर पर उत्पादक सदस्य होने के अवसर से भी वंचित रह जाएंगे।

इसका सबसे ज्यादा असर जन्म लेने वाले बच्चों के खान-पान पर पड़ता है। क्योंकि इससे बच्चों को पूरा पोषण नहीं मिल पाता है जिससे वो कुपोषण और कई अन्य गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं।
तो वहीं देश में बढ़ती बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण यह विस्फोटक जनसंख्या है क्योंकि इससे हर जगह जरूरत से अधिक प्रतिस्पर्धा बनी हुई है। जिसके कारण दैनिक जीवन में कठिन मेहनत करनी पड़ती है जो कहीं न कहीं गरीबी को भी जन्म देती है। गरीबी एवं बेरोजगारी की स्थिति ही युवाओं में भटकाव पैदा करती है जो देश में बढ़ते अपराध की भी जनक है।

जनसंख्या का संसाधनों के साथ गैर-आनुपातिक वृद्धि होने के कारण पूरे देश में क्षेत्रीय एवं धार्मिक, सामाजिक असंतुलन आम हो चला है। ऐसा पहली बार नहीं है कि देश में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर चर्चा और जनसंख्या के प्रति चिंता अभी शुरू हुई है। 1970 के दशक में भी यह चर्चा आम थी लेकिन आपातकाल के दौरान जबरदस्ती कराए गए परिवार नियोजन के विनाशकारी अनुभव के बाद राजनेताओं द्वारा इस शब्द का उपयोग न के बराबर किया जाता रहा। तब से जनसंख्या नियंत्रण राजनैतिक दृष्टि से अछूता रहा या फिर कभी चर्चा में आया भी तो सदन में एक ‘प्राइवेट बिल’ या एक विवादास्पद मुद्दे के तौर पर।

लेकिन आज जरूरत है तो इसको राजनीतिक विषय न मानकर बल्कि एक सामाजिक पहल के साथ विस्फोटक होती जनसंख्या पर नियंत्रण करने के लिए कानून बनाने की दिशा में सहयोग की। क्योंकि आज जब कोरोना के समय दुनिया को आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ रहा है। हम देख पा रहे है कि काफी हद तक बेरोजगारी भी बढ़ी है, मजदूर मजबूर होता नजर आया है, स्वास्थ्य की उत्तम सुविधाओं के लिए जद्दोजहद है, सबके लिए आधुनिक उपकरण नहीं है और भी ऐसी तमाम बुनियादी जरूरतों की पूर्ति को लेकर सब संघर्षरत नजर आ रहे है।

तो समय की मांग को समझते हुए मजहब,पंथ को ढाल बनाकर फालतू की बहस व उपद्रवी बनने के बजाय सभी अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारी को निभाने के लिए एक सामाजिक शुरूआत करें। इस दिशा में ‘हम दो, हमारे दो’ जैसी नीति को कानून की शक्ल में परिवर्तित कराने एवं करने का प्रयास करें।

अखिल मोहन शर्मा
स्वतन्त्र लेखक

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