अमृता प्रीतम की लेखनी कल्पना लोक और कठोर यथार्थ का है संतुलन
लखनऊ। उत्तर प्रदेश पंजाबी अकादमी के 25 वें स्थापना दिवस पर सोमवार 18 मार्च को पंजाबी भाषा साहित्य की सुप्रसिद्ध उपन्यासकार, साहित्यकार और कवयित्री अमृता प्रीतम के जीवन पर आधारित संगोष्ठी का आयोजन, इन्दिरा भवन के चौथे तल पर स्थित अकादमी कार्यालय परिसर में किया गया।
इसका विषय ‘‘पंजाबी साहित्य विच अमृता प्रीतम जी दा योगदान” था। इसमें संदेश दिया गया कि अमृता प्रीतम की लेखनी में कल्पना लोक और कठोर यथार्थ का अद्भुत संतुलन है। इस अवसर पर अकादमी के निदेशक के प्रतिनिधि के रूप में कार्यक्रम कॉर्डिनेटर अरविन्द नारायण मिश्र ने संगोष्ठी में उपस्थित विद्वानों को अंगवस्त्र और स्मृति चिन्ह भेंट किये।
संगोष्ठी में वरिष्ठ पंजाबी विद्वान दविंदर पाल सिंह ने कहा कि साहित्य अकादमी, भारतीय ज्ञानपीठ जैसे अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित, पद्म विभूषण अमृता प्रीतम ने अल्पायु में ही पंजाबी साहित्य जगत में ख्याति प्राप्त कर ली थी। उनकी लिखी कविताएं ही नहीं गद्य, निबंध, आत्मकथा और उपन्यास भी बहुत लोकप्रिय रहे हैं। वास्तव में उनकी लिखी पुस्तके साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
वरिष्ठ पंजाबी विद्वान सत्येन्द्र पाल सिंह के अनुसार अमृता प्रीतम की लेखनी, कल्पना लोक और कठोर यथार्थ के संतुलन का प्रवाह थी। उनके भाव, प्रेम और पीड़ा दोनों को साथ लेकर प्रकट होते थे। उनके लेखन ने पंजाबी भाषा को अंतरराष्ट्रीय पहचान स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
वरिष्ठ पंजाबी लेखक नरेन्द्र सिंह मोंगा ने कहा कि अमृता प्रीतम को साल 1947 में भारत-पाक विभाजन के दौरान हुये नरसंहार पर शोक गीत और मन की पीड़ा को अभिव्यक्त करती एक मार्मिक कविता ‘‘अज्ज आखां वारिस शाह नू” के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है।
मोंगा जी के अनुसार साल 1950 में एक उपन्यासकार के रूप में अमृता का सबसे प्रसिद्ध कार्य ‘‘पिंजर” था। उसमें उन्होंने महिलाओं के खिलाफ हिंसा और मानवता की हत्या जैसे मुद्दों को पुरजोर उठाया। साल 2003 में उसी रचना पर पुरस्कार विजेता फिल्म ‘‘पिंजर‘‘ तक बनाई गई थी।