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राम भक्त श्री हनुमान जी बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं

श्री हनुमान जी प्रभु श्रीराम जी के अनन्य भक्त हैं। उनके दिव्य व्यक्तित्व की महिमा में कहा गया है।

अतुलितबलधमं हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।

अर्थात बल के अथाह सागर, सुमेरू पर्वत के समान उज्जवल, दानवों का नाश करने वाले, ज्ञानियों में अग्रणी, संपूर्ण गुणों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त श्री हनुमान जी बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं। उनके गुणों को बखान करते हुए प्रभु श्रीराम जी महर्षि अगस्तय जी से कहते हैं कि हनुमान जी तेज, धैर्य, सामथ्र्य, नीति, पुरुषार्थ, विवेक इत्यादि गुणों के भंडार हैं।

आएँ हम भी श्री हनुमान के दिव्य गुणों को जाने-

महांवीर विक्रम बजरंगी-शास्त्रों में वीर रस के चार भेद बताए गए हैं-दान, दया, युद्ध एवं धर्म। कोई दानवीर होता है व कोई कर्मवीर परंतु जिसमें सारे वीर रस मौजूद हों, वह महांवीर होता है-‘महांवीर विक्रम बजरंगी। और श्री हनुमान जी इन सभी गुणों के ध्नी हैं। वे स्वभाव से अत्यन्त विनम्र, सरल, कृपालु व अच्छे व्यवहार वाले हैं। वे विशाल, शक्ति सम्पन्न हैं जिसके कारण वे युद्ध वीर रस के धरणी हैं। जिस समय श्री हनुमंत जी लंका पहुँचे तो वहाँ उन्हें लंका की रखवाली कर रही लंकिनी नामक राक्षसी मिलती है। अपना लघु रूप बनाकर लंका में प्रवेश कर रहे हनुमान जी को वह पहचान लेती है व उन्हें धक्का मारकर लंका से बाहर निकालने लगती है, तो हनुमान जी उस पर मुष्टिका प्रहार करते हैं। लंकिनी लंका की पहरेदार थी। वह रावण जैसे चोर की सेवा में लगी थी। वो गलत व्यवस्था की रखवाली कर रही थी इसलिए श्री हनुमंत लाल जी ने उस पर वार किया। यह वीरता की सर्वोत्म उदाहरण है।

एक आज्ञाकारी सेवक-एक बार माता अंजनी ने श्री हनुमंत लाल जी कहा, कि आपके अंदर असीम बल है।जिसके द्वारा आप अकेले ही लंका का नाश कर सकते थे। परंतु पिफर भी आपने ऐसा क्यों नहीं किया । हनुमंत लाल कहने लगे कि माता श्रीराम जी ने मुझे ऐसा करने की आज्ञा प्रदान नहीं की थी। वास्तव में यही एक सच्चे सामथ्र्यशाली भक्त का गुण है क्योंकि प्रभु के कार्य सिद्धी में की गई मनमानी कुशलता का नहीं अपितु अहंकार का प्रदर्शन करती है। विवेक के स्वामी-जब कोई भक्त प्रभु के कारज हित तत्पर होता है तो उसकी बुद्धि भी ‘भक्ति’ बन जाती है। यद्यपि संसार से जुड़कर यही बुद्धि ‘आसक्ति’ बन जाती है। हनुमंत लाल जी के बारे में आता है-कुमति निवार सुमति के संगी।’ कुमति भाव बुरी बुद्धि एवं सुमति अर्थात विवेक बुद्धि । हनुमंत लाल जी विवेक के सागर हैं। इसलिए उन्होंने अपने बल व बुद्धि का समीचीन प्रयोग किया। जब वे माँ सीता जी की खोज में जा रहे थे तो उन्हें सिंहिका नामक राक्षसी मिलती है। जिसे उन्होंने मार दिया। यहाँ हनुमान जी हमें समझाना चाह रहे हैं कि ईष्र्या को जिंदा नहीं रहने देना चाहिए। जब ये ईर्ष्या हमारे भीतर पनपे तो अपने विवेक द्वारा तत्समय ही इसका अंत कर दें। ईर्ष्यालु लोग अपनी सारी ऊर्जा दूसरों पर जलने में ही नष्ट कर देते हैं। यद्यपि हमें अपने विवेक से, अपनी कमियों व दोषों को जलाना चाहिए।

विद्यावान व गुणी-हनुमान जी के बारे में आता है-विद्यावान गुनी अति चातुर। भाव हनुमंत लाल जी विद्वान, गुणी व बहुत चतुर हैं। वे मात्रा विद्वान नहीं अपितु गुणवान भी हैं। वे उच्च आदर्शों से परिचित ही नहीं अपितु इन्हें धरण भी करते हैं। वे अपने वचन, व्यवहार, विचार से प्रभु श्रीराम जी के आदर्शों पर खरे उतरते हैं। क्योंकि अवगुणों से घिरी विद्ववता कभी भी कल्याणकारी नहीं हो सकती। राम काज को तत्पर, उद्यमी सेवक-‘राम काजि कीन्हें बिना मोहि कहा बिसराम’ समुद्र पार करते समय जब मैनाक पर्वत ने हनुमंत लाल जी को प्रभु श्रीराम जी का दूत होने के नाते कुछ पल आराम करने के लिए कहा, तो हनुमान जी मैनाक को हाथ से छूकर उसे प्रणाम करते हैं और कहते हैं-हे भाई! मैं श्रीराम जी के कार्य को पूर्ण किए बिना विश्राम नहीं कर सकता। यहाँ पर श्री हनुमंत लाल जी ने मैनाक के सामने चतुराई का प्रदर्शन किया। क्योंकि न तो उन्होंने उसकी विनती को स्वीकार किया न ही अस्वीकार। उन्होंने मैनाक पर्वत का मान रखते हुए उसे दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया व आगे बढ़ गए।

वास्तव में सोने का पर्वत मैनाक सुख-समृद्धि का प्रतीक है। हनुमान जी अपने इस व्यवहार द्वारा हमें समझा रहे हैं कि-‘सुख सुविधओं के अंबार में भी अपने उद्देश्य को याद रखना चाहिए।’ एक सच्चा प्रभु भक्त कभी भी अपने सुख आराम के कारण प्रभु के कार्य को विस्मरण नहीं करता। भक्त विलासी नहीं उद्यमी होता है। अपने लक्ष्य पर पूर्णतः केन्द्रित-जब श्री हनुमान जी माता सीता जी की खोज में आगे बढ़ते हैं, तो उनके सामने सुरसा राक्षसी आई। हनुमान जी को खाने के लिए जैसे ही उसने अपना विशाल मुख खोला, वैसे ही इन्होंने भी अपना आकार बढ़ा लिया। पिफर छोटे से बनकर सुरसा के मुख प्रवेश किया और बाहर आ गए। हनुमंत लाल अपने इस आचरण द्वारा हमें समझा रहे हैं कि, जीवन में कभी भी किसी को बड़ा बनकर नहीं जीता जा सकता। अपितु नम्रता ही हमंे आगे लेकर जाती है। यहाँ पर हमें जीवन जीने की एक महत्वपूर्ण बात समझ आती है कि, अगर हनुमंत जी चाहते तो सुरसा से यु( कर उसे परास्त कर सकते थे। परंतु ऐसा करने से समय व ऊर्जा दोनों ही नष्ट होते। वे जानते थे कि इस समय मेरा उद्देश्य जल्द से जल्द माता सीता जी की खोज करना है। इसलिए मुझे केवल अपने लक्ष्य पर ही ध्यान केन्द्रित करना है। परंतु हम लोग अकसरां अपने लक्ष्य की तरपफ बढ़ते हुए आस-पास के लोगों के प्रति क्रिया-प्रतिक्रिया में पंफसकर रह जाते हैं। खुद को बड़ा व उत्तम सिद्ध करने की होड़ में अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं एवं किसी की भी नज़र में बड़े नहीं बन पाते।

चतुर व सेवा को आतुर सेवक-श्री हनुमान जी ने चतुराई से लंका में प्रवेश किया व माता सीता जी तक प्रभु का संदेश पहुँचाया। रामचरित मानस में दो चतुर पात्रों का वर्णन मिलता है। एक हनुमान जी दूसरी मंथरा। मंथरा की चतुराई कुटिलता पूर्ण थी। मंथरा की कुटिल चतुराई ने सिर्फ विनाश ही किया। परंतु श्री हनुमान जी मंगल ही करते हैं क्योंकि वे सदैव राम जी की सेवा में रत्त रहते हैं-राम काजि करिबे को आतुर।। पिफर वह चाहे हिमालय पर्वत से संजीविनी लाने की सेवा हो, चाहे माता सीता जी का खोज कार्य हो। उन्होंने हर एक सेवा को बहुत ही तत्परता व उत्साह से पूर्ण किया। अगर हमें भी सच्चे राम सेवक व भक्त बनना है तो पिफर आलस का त्याग करना ही पड़ेगा। श्री हनुमंत लाल जी राम काज को इतनी तत्परता से इसलिए भी करना चाहते हैं क्योंकि वे प्रभु को प्रसन्न करना चाहते हैं। एक बार माता सीता जी अपनी मांग में सिंदूर भर रही थीं। तो हनुमान जी ने पूछा माता यह रंग आप अपने माथे पर क्यों लगा रही हैं। तो माता सीता जी ने कह दिया कि इससे प्रभु प्रसन्न हो जाते हैं। माता की इस बात को सुनकर उन्होंने अपने पूरे बदन पर सिंदूर लगा लिया था। सर्वगुण सम्पन्न-हनुमान जी ज्ञानियों में श्रेष्ठ व सर्व गुण सम्पन्न हैं। एकदा प्रभु श्रीराम जी ने कहा कि मुझे चारों वरण हनुमान जी के भीतर नज़र आते हैं। प्रभु के मुखारविंद से यह बात सुनकर हनुमंत लाल भोले भाव में कहने लगे प्रभु आपने पहले मुझे ब्राह्मण कहा, पिफर क्षत्रिय और अब वैश्य व शूद्र भी कह रहे हैं। ऐसा क्यों? तो प्रभु श्री राम जी कहने लगे-हे हनुमंत! वैश्य दूसरे पर कर्ज़ चढ़ा देता है। आप ने मेरी इतनी सेवा की है कि इससे होना मेरी लिए आसान नहीं है।

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेऊँ करि बिचार बन माहीं।। ;रा.च.म सुंदरकाण्ड

एक राम सेवक के यही गुण उसे भक्ति के शिखर तक लेकर जाते हैं। वे हर मुश्किल प्रस्थिति में श्रीराम जी के साथ खड़े रहे। एवं पूर्ण तत्परता से प्रत्येक सेवा को पूर्ण किया। जिसके चलते वे भी प्रभु के साथ पूजनीय बन गए। श्रीराम जी के स्वरूप के साथ श्री हनुमंत लाल जी का स्वरूप भी होता है जिसमें वे प्रभु के चरणों में हाथ जोड़कर शीश झुकाए बैठे रहते हैं। जय श्री राम।

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