साइबर संवाद

Yogi सरकार की मंशा पर पानी फेरती नौकरशाही

पोर्टल की व्यवस्था के साथ जनसमस्याओं के निस्तारण की अन्य व्यावहारिक व्यवस्था भी की जानी चाहिए। इस कार्य में ऐसे अफसर व कर्मचारी लगाए जाने चाहिए, जिन्हें जनता की समस्याएं हल करने में सुख मिलता हो। जो अधिकारी मोबाइल ‘आॅफ’ रखें या अपने चपरासियों के हवाले करें, उन्हें जबतक कड़ा दण्ड नहीं दिया जाएगा, वे अपनी आदत से कभी बाज नहीं आएंगे। यदि ऐसा नहीं होता है तो नौकरशाही का गैरजिम्मेदाराना एवं शिथिल रवैया मुख्यमंत्री Yogi Adityanath के लिए नुकसानदेह होने के साथ-साथ योगी के लिए खतरे की घन्टी है…..

श्याम कुमार

Yogi सरकार में जनसुनवाई के प्रति शासन की जो सक्रियता दिख रही है, वैसी प्रदेश में आज तक कभी नहीं देखी गई। योगी-सरकार उस दिशा में जी जान से जुटी हुई है। सबसे खास बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश-मुख्यालय में जनसुनवाई की व्यवस्था सरकार ने की है। मैं विगत अनेक वर्षो से भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश-मुख्यालय में जनसुनवाई की व्यवस्था किए जाने का सुझाव दे रहा था।

मैं देखता था कि Yogi सरकार के सत्ता संभालने से पूर्व प्रदेश भर से भाजपा-कार्यकर्ता मुख्यालय में आकर भटकते हैं। लेकिन वहां उनकी कोई सुनवाई नहीं होती है। पार्टी की उस अवहेलना का ही नतीजा था कि भाजपा-कार्यकर्ता निराश होकर घर बैठ गया था। और प्रदेश में पार्टी चैथे नम्बर पर चली गई थी। जब लक्ष्मीकांत वाजपेयी प्रदेश-अध्यक्ष बने तो उन्होंने प्रदेश में मृत पड़ी भाजपा में प्राण फूंके। उन्होंने पार्टी को आंदोलनों आदि के माध्यमों से सड़क पर उतारकर सक्रियता प्रदान की थी।

उन्होंने मेरे सुझाव पर प्रदेश-मुख्यालय एवं जनपदों के कार्यालयों में कार्यकर्ताओं की सुनवाई की व्यवस्था की थी। लेकिन वह व्यवस्था ऊंट के मुंह में जीरे के समान थी। मैंने जनसुनवाई के उस रूप का सुझाव दिया था, जो वर्तमान समय में लागू की गई है। मेरा यह सुझाव भी कार्यान्वित हो गया है कि पार्टी-मुख्यालय में केवल भाजपा-कार्यकर्ताओं की नहीं, बल्कि आम जनता की भी सुनवाई की व्यवस्था की जाये।

विदित हुआ है कि प्रदेश के जनपदों में स्थित पार्टी-कार्यालयों में जनसुनवाई की व्यवस्था अभी कारगर रूप में नहीं हो पाई है। इसमें शक नहीं कि योगी-सरकार एवं भाजपा-नेतृत्व ने उत्तर प्रदेश में जनसुनवाई की व्यवस्था पूरी तरह अच्छी नीयत से की है। इसके लिए यथासम्भव अधिक से अधिक सक्रियता भी बरती जा रही है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जनता की समस्याओं का निस्तारण तो प्रशासन द्वारा ही किया जाता है।

हमारे यहां का प्रशासन विगत दशकों में बिलकुल ह्दयहीन एवं अंधा-बहरा हो चुका है। वह ऐसा घोड़ा बन चुका है, जो तभी काबू में आ सकता है, जब चाबुक हांथ में हो। शिथिल एवं उदार रवैये से उस पर काबू पाना लगभग असम्भव है। अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्ता जी का उदाहरण उनके सामने है। उनके प्रमुख सचिव नियुक्ति, ट्रान्सफर-पोस्टिंग की पत्रावली पहले मुलायम सिंह से ओके कराते थे, तब जाकर वह उसे स्व0 रामप्रकाश गुप्ता जी से एप्रूव कराते थे।

उदाहरणस्वरूप, राजधानी लखनऊ में ही रोज प्रायः हर समय सड़कों पर जाम लगा रहता है तथा लोगों का बेहद कीमती समय नष्ट होता है। जाम में फंसकर कितने ही मरीज मौत के कगार पर पहुंच जाते हैं। लेकिन शासन व प्रशासन उस समस्या की ओर आंख बंद किए बैठा है। मंत्री एवं उच्चाधिकारी अपने सुरक्षा-काफिले के साथ निकल जाते हैं।

उन्हें जनता के कष्ट की अनुभूति होती ही नहीं। यदि मुख्यमंत्री कड़ाई करें और जाम की समस्या हल न करने पर कमिशनर, जिलाधिकारी अथवा अन्य दो-चार उच्चाधिकारियों को कठोर दण्ड दे दें तो वे उच्चाधिकारी स्वयं सड़कों पर खड़े होकर यातायात संभालते दिखाई देंगे। ऐसा होने पर लोकतंत्र का सच्चा आदर्श रूप दिखाई देगा, जिसमें जनता मालिक होगी एवं नेता व नौकरशाह उसके सेवक होंगे।

मुख्यमंत्री ने यह व्यवस्था तो कर दी है कि जनता की हर शिकायत पर समुचित कार्रवाई की जाये। चूंकि वर्तमान समय में प्रदेश का प्रशासन जनसेवा की भावना से पूरी तरह शून्य है, इसलिए ऐसे उदाहरणों की भरमार है कि लोगों की शिकायतों पर अललटप्पू ढंग से कार्रवाई हो रही है। विगत दशकों में प्रशासन के अंग, जनता की मदद करने के बजाय उसे झूठे आश्वासन देते रहने व टालू मिक्सचर पिलाने में माहिर हो गए हैं।

यह आम बात हो गई है कि मुख्यमंत्री के यहां से जनसुनवाई पोर्टल द्वारा जनता की जो शिकायतें विभिन्न विभागों के पास भेजी जाती हैं, प्रायः वे सही जगह न भेजकर गलत जगहों पर जानबूझकर भेज दी जाती हैं। वर्तमान समय में सबसे बड़ी ढिलाई स्वयं मुख्यमंत्री के कार्यालय में हो रही है। मुख्यमंत्री के यहां जनता की जो शिकायतें लोग भेजतेे हैं, उन शिकायतों को वहां ठीक से पढ़ा भी नहीं जाता और निस्तारण हेतु इस विभाग की शिकायत उस विभाग में भेज दी जाती हैं।

ये सब अनजाने में नहीं बल्कि जानबूझकर किया जा रहा है। भष्ट अधिकारी इसकी भी माहवारी बांध देते हैं कि मेरी शिकायत सही जगह ना भेजना। ये परम्परा पूर्व से चली आ रही है, जब ये सब मैन्यूअली होता था फरियादी के पत्र को न पढ़ना उच्चतम स्तर से लेकर निम्नतम स्तर तक प्रशासन की आम प्रवृत्ति हो गई है। फरियादी के पत्र की ऊपर की सिर्फ दो-तीन लाइन पढ़कर वह पत्र निस्तारण हेतु अग्रसारित कर दिया जाता है। पूरा पत्र पढ़ने की किसी को फुरसत नहीं है।

परिणाम यह होता है कि फरियादी का पत्र इधर-उधर घूमता रहता है और समस्या यथावत बनी रहती है। जनता की सुनवाई वास्तव में सुनवाई न होकर ढ़ोंग होकर रह गई है। प्रशासन की इस लापरवाही एवं कर्तव्यहीनता का दुष्रिणाम अंततः योगी सरकार को झेलना पड़ रहा है। जनता के प्रति मुख्यमंत्री योगी जितना अधिक सजग और सेवाभाव से युक्त हैं, प्रशासन का रवैया उतना ही नकारात्मक सिद्ध हो रहा है।

मुख्यमंत्री Yogi को सबसे बड़ी व्यवस्था यह करनी चाहिए कि स्वयं फरियादी से यह पूछा जाये कि उसकी समस्या का समाधान हुआ अथवा नहीं? जब उससे स्पष्ट उत्तर मिल जाये कि उसकी समस्या हल हो गई है, तभी मामले का वास्तविक निस्तारण माना जाये। ‘पोर्टल’ पर सूचना को भी ‘पूर्ण व्यवस्था’ नहीं मानना चाहिए। आम अनपढ़ व गरीब जनता को मोबाइल पर वह सब देखना सम्भव नहीं होता है।


‘पोर्टल’ की व्यवस्था के साथ जनसमस्याओं के निस्तारण की अन्य व्यावहारिक व्यवस्था भी की जानी चाहिए। यदि मुख्यमंत्री चाहते हैं कि जनता अपनी समस्याओं के समाधान के बारे में सचमुच संतुष्ट हो तो उन्हें इस दिशा में कोई न कोई कारगर एवं व्यावहारिक उपाय अवश्य करने होंगे। इस कार्य में ऐसे अफसर व कर्मचारी लगाए जाने चाहिए, जिन्हें जनता की समस्याएं हल करने में सुख मिलता हो।


जो अधिकारी मोबाइल ‘आॅफ’ रखें या अपने चपरासियों के हवाले करें, उन्हें जबतक कड़ा दण्ड नहीं दिया जाएगा, वे अपनी आदत से कभी बाज नहीं आएंगे। यदि ऐसा नहीं होता है तो नौकरशाही का गैरजिम्मेदाराना एवं शिथिल रवैया मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए नुकसानदेह होने के साथ-साथ योगी के लिए खतरे की घन्टी है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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