पंचतंत्र

PanchTantra की कहानी भाग-पांच

पिछले अंक में आपने पढ़ा कि….
सेकुलरिज्म पश्चिम के लिए नई अवधारणा हो सकती है। क्योंकि वहां धार्मिक जकड़बंदी इतनी कठोर रही है कि तनिक सी छूट को भी असह्य मान कर भारी रक्त पात होता रहा है। इस देश में इसकी एक लंबी परंपरा रही है और इसका कुछ श्रेय चाणक्य जैसे अर्थशास्त्रियों और विष्णुशर्मा जैसे रचनाकारों को जाता है।

पर सब कुछ के बाद भी न तो हम विष्णुशर्मा के युग में रह रहे हैं ना ही उनके युग का विवेचन हमारे लिए पर्याप्त हो सकता है। ज्ञान, सभी शाखाओं में इतना विकसित हो चुका है कि उसको देखते हुए विष्णुशर्मा के समय का ज्ञान बहुत बचकाना लगता है।
इसके बाद भी जब हम कहते हैं कि यदि इस कृति के मर्म को ध्यान में रखा जाए तो आज के जटिल युग की भी अनेक राजनीतिक और प्रशासनिक समस्याओं को सुलझाने में मदद मिल सकती है। केवल इसलिए कि व्यावहारिक स्तर पर उन बातों की भी उपेक्षा कर दी जाती है, जिनको विष्णुशर्मा अधिक गहराई से समझते थे।
इसलिए व्यवहार में उन्हें हमारे राजनीतिज्ञों और प्रशासकों का आचरण विष्णुशर्मा के युग की तुलना में प्राय: पिछड़ा और बचकाना प्रतीत होने लगता है। वे कभी तो गंगदत्त की तरह बात-बात पर अपने झगड़े निबटाने के लिए बाहर से कोई प्रियदर्शन बुलाने लगते हैं, तो कभी खुशी-खुशी किसी शातिर मंदविष की पीठ पर सवार मेढ़कों की तरह खुशी मनाने लगते हैं।
और भूल जाते हैं कि खाने वाला आए चाहे जितना भी निरीह और मनभावन बन कर आएगा, आपको खाने के लिए ही। वे कभी ज्ञानी मूर्खों की तरह किताबी समाधानों से इस हद तक संतुष्ट हो जाते हैं कि यह देख ही नहीं पाते कि उनके परिणाम क्या हो रहे हैं। और कभी मरे हुए सिंह को जिलाने में ही अपनी योग्यता की इतिश्री मान लेते हैं। हद तो यह है कि तांत्रिकों और ज्योतिषियों का राजनीति में प्रवेश आज उससे कहीं अधिक है।
जितना विष्णुशर्मा को उचित लगता था। वह इन दोनों का मजाक उड़ाते है कि कैसे इनकी आड़ में बदमाशियां की जा सकती हैं। विष्णुशर्मा अपने समय की समाजिक और धार्मिक मान्यताओं से पूरी तरह ऊपर न तो उठ सकते थे, न ही उठ पाए हैं।
समाज सवर्णप्रधान था, इसलिए गलत होने पर भी ऊंची जाति का आदमी कम गलत और सही होते हुए भी छोटी जाति का आदमी कुछ कम सही हुआ करता था। पहला जहां सही हुआ वहां वह अपनी जाति और कुल के कारण ही ऐसा हो पाता था। और दूसरा जहां गलत हुआ वहां वह अपनी जाति या पेशे की मलिनता के कारण ही ऐसा होता था।
हमारी दृष्टि में परिवर्तन के बावजूद वह समाज व्यवस्था काफी दूर तक आज भी बनी रह गई है। यही बात स्त्रियों के प्रति उस समय के दृष्टिकोंण के विषय में कही जा सकती है। जो सवर्णप्रधान होने के साथ ही साथ पुरूषप्रधान भी था। मानव स्वभाव की सारी दुर्बलताएं उनके जमाने में केवल स्त्रियों में ही हुआ करती थीं।
पुरूषों में तो वे स्त्रियों के सिर्फ संपर्क के कारण आ जाती थीं और इस संपर्क से अलग रह कर मनुष्य इनसे बच भी सकता था। आज वह दृष्टि तो बदल गई है पर व्यवहार में अभी विशेष परिवर्तन नहीं आ पाया है। आर्थिक स्तरभेद के विषय में भी उस समय की दृष्टि अलग थी। जो वंचित था वह पिछले जन्म के कर्म का फल पा रहा था। और जो समृद्ध था वह पिछले पुण्य का भोग कर रहा था।
इसलिए अन्यायी और भ्रष्ट संपन्न व्यक्ति के प्रति भी उस समय एक आदर का भाव होता था और आर्थिक रूप से वंचित जनों के प्रति सहानुभूति का अभाव। आज की स्थिति भिन्न है पर इतनी भिन्न नहीं कि इनमें से कोई भी दृष्टि आमूल तौर पर बदल गई हो।
पर इसके बाद भी अपनी वस्तुपरकता के कारण अनेक मामलों में विष्णुशर्मा अपने समय से काफी आगे पड़ते हैं। वह तुलसी की तरह ‘पूजिस बिप्र जदपि गुण हीना, शूद्र न पूजिय बेद प्रवीना कहने की जिद नहीं पालते। उनकी कहानियों का एक चालक शूद्र राजकुमारी से विवाह कर सकता है। ब्राह्मणी या राजकुमारी उतनी ही व्यभिचारिणी हो सकती है, जिनती एक सामान्य कुलटा।
वह भाग्यवाद को पूरी तरह खारिज तो नहीं करते पर ‘जो बिधना ने लिख दिया छठे मास के अंत, राई घंटे न तिल बढ़ै रहु रे जीव निसंक कह कर भाग्यवाद का प्रचार नहीं करते अपितु इसको मानते हुए भी कर्म और उद्यम पर बल देते हैं। जो भाग्य को भी बदल सकता है या जिसके बिना उसका भी भोग नहीं किया जा सकता जो भाग्य में बदा है।………………………………आगे भाग—छह।

 

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