विविध
लब आजाद हैं तेरे-तीन तलाक गैर कानूनी करार
फैज अहमद फैज ने बहुत पहले यह कहकर औरतों को झकझोरने की कोशिश की थी की -बोल कि लब आजाद है तेरे, बोल ज़ुबां अब तेरी है… उनकी इस नज्म ने समाज पर गहरा असर डाला और अब सुप्रीम कोर्ट ने भी औरतों को कह दिया की बोल कि लब आजाद है तेरे….
२२ अगस्त 2017 का दिन यकीनी तौर पर मुस्लिम समाज की आधी आबादी (यानि की मुस्लिम महिलाओं वाली आधी आबादी) के लिए (लब आजाद हैं) ये दिन ईद के जश्न जैसा दिन है. यह उसके संघर्ष और उसकी खुशी को सलाम करने का दिन है. वैसे तो मुस्लिम महिलाएं बहुत पहले से ही इस नाइंसाफी पर सवाल उठाती आ रहीं थीं, लेकिन उनकी सुनी नहीं जा रही थी. याद करें शाहबानो के साथ क्या हुआ था?
तब जो तंगजहन ताकतें कर पाईं उसे आज की मुसलमान औरतों ने भी नकार दिया और आजाद हिंदुस्तान की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने भी. शायद यही कारण है कि उनकी खुशी में सारा देश शिरकत कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों ने तीन तलाक को असंवैधानिक माना. अब इन तीन जजों का फैसला ही मान्य होगा. रही बात छह माह तक तीन तलाक असंवैधानिक रहने की तो आखिर जो चीज छह माह के लिए असंवैधानिक है वह छह माह बाद भी तो असंवैधानिक ही रहेगी.
धार्मिक किताबों और हवालों को दरकिनार करती वह अपने हक के लिए आवाज उठाने लगी है. पितृसत्ता की गहरी बुनियाद को उसने हिला दिया है. तीन तलाक के खिलाफ लड़ाई लड़ने के दौरान मुस्लिम महिलाओं ने कई ऐसी बातें कहीं जो दिल को भेद गईं- शादी के लिए तो वकील, गवाह लेकर आते हैं और तलाक बंद कमरे में कह कर चले जाते हैं….औरतों की ऐसी बातें मेरे भीतर की दुनिया के हजार टुकडे़ कर देती थीं. मेरे पास उन्हें सांत्वना देने को कुछ नहीं रहता था. इस पूरी लडाई में औरत का संघर्ष जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया उस पर हमले भी बढते गए। गली, मोहल्लों, गांव-कस्बों से लेकर बडे़ शहरों में काम करने वाली औरतों ने भी ये हमले झेले. कभी गाली गलौज, कभी फोन पर धमकी. रिपोर्ट दर्ज करने और मुकदमा कायम करने तक की नौबत भी आई, लेकिन औरत पीछे नही हटी. वह डटी रही.
हालांकि अदालतों ने मुस्लिम समाज के रूढ़िवादी तबके को आईना दिखाने वाले और मुसलमान औरतों को हक देने वाले फैसले बहुत पहले से देने प्रारंभ कर दिए थे, लेकिन रूढ़िवादी समूहों ने न उन्हें कभी पढ़ने की कोशिश की और न ही समझने की. 1994 में रहमतुल्लाह बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश के एक फैसले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एकतरफा तीन तलाक को अवैध और कुरान के निर्देशों के खिलाफ बताया.
इलाहाबाद हाईकोर्ट का ही एक मामला अबरार अहमद बनाम शमीम आरा का जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो अबरार अहमद के एकतरफा तीन तलाक देने को सिरे से खारिज कर दिया गया. औरतों के खिलाफ आए दिन आने वाले फतवों के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में एक फैसला दिया, लेकिन उस वक्त भी रहनुमाओं की तरफ से एक शब्द भी फैसले के पक्ष में नहीं कहा गया. बॉम्बे और मद्रास हाईकोर्ट ने भी जुबानी तीन तलाक को अमान्य करार करते हुए महिलाओं के हक में फैसले दिए, लेकिन मौलवियों की ओर से बस एक ही रटी रटाई आवाज आती रही कि तीन तलाक अल्लाह का कानून है. इसमें न बदलाव हुआ है और न ही हो सकता है.
अगर केवल पिछले 20 सालों का इतिहास देखें तो पाएंगे कि समाज में बदलाव लगातार हो रहा है. मुस्लिम समाज का (लब आजाद हैं) इतिहास देखें तो वर्ष 632 के बाद से ही बदलाव होता आ रहा है. ऐसे में यह कहने की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है कि पहले के किसी कानून में बदलाव नहीं हो सकता.
(लब आजाद हैं) बदलाव हुआ है और आगे भी होता रहेगा. दरअसल रहनुमाओं की एक बड़ी गलती यह रही कि तीन तलाक के मामले में उन्होंने शरीयत शब्द को दहशत की तरह फैलाया. यहां यह भी जानना जरूरी है कि आखिर शरीयत का मतलब क्या है? शरीयत का शाब्दिक अर्थ है अनुकरणीय मार्ग अर्थात जो अनुकरण करने योग्य हो.
अल्लाह के कुछ निर्देश अनिवार्य है.(लब आजाद हैं) कुछ अपेक्षित हैं और कुछ वैकल्पिक हैं अर्थात जिनका पालन किया भी जा सकता है और नहीं भी. इस प्रकार अल्लाह ने मानवीय आचरण के लिए मार्गदर्शन दिया है. अल्लाह के इन्हीं निर्देशों को शरीयत कहते है. स्पष्ट है कि तीन तलाक मानवीय आचरण नहीं है.
शरीयत कानून लोगों ने बनाए है और लोगों के बनाए हुए कानूनों में हमेशा ही बदलाव की संभावना मौजूद रहती है. अल्लाह ने कहीं भी कभी भी यह निर्देश नहीं दिया कि कोई कानून बदल ही नहीं सकता. अल्लाह ने तो यह कहा है कि देखो समझो और अक्ल का इस्तेमाल करो.
तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सबको स्वागत करने की जरूरत है. जरूरत इसकी भी है कि अपनी लड़ाई लड़ने के दौरान मुसलमान औरतों ने मौलवियों की तरफ से जो पीड़ा झेली उसे भुलाकर वे आगे बढ़ें. अभी इस तरह की कई अमानवीय प्रथाएं है, जिनके खिलाफ उन्हें लामबंद होना है.
महिलाओं को अभी मुस्लिम पारिवारिक कानून को संहिताबद्ध करने की लड़ाई लड़नी है.(लब आजाद हैं) तीन तलाक की तरह ही हलाला और मुता विवाह के खिलाफ भी खडे़ होना है. ये भी इस्लाम पूर्व की प्रथाएं है. इन्हें पैगंबर मुहम्मद ने रोका था, लेकिन दुर्भाग्य से इस्लाम नाजिल होने के बाद भी समाज में कुछ कुप्रथाएं इस्लाम के नाम पर जारी रहीं और औरत उनका शिकार होती रही. यह अभी हाल का मामला है जिसमें 5 लाख रुपये लेकर 13 साल की बच्ची की शादी 58 साल के आदमी से करा दी गई और वह भी इस्लाम के नाम पर.
इससे बेहतर और कुछ नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के रुख के आगे इंतेहापसंद ताकतें हाशिए पर सिमटती नजर आईं. चूंकि सभी धर्मों की महिलाएं किसी न किसी स्तर पर परिवार के भीतर पिस रही हैं और उनके साथ नाइंसाफी बरती जा रही है, इसलिए परिवार के भीतर और बाहर महिला अधिकारों के प्रश्न को धार्मिक चिंताओं के दायरे से बाहर खींच कर मानवाधिकार के प्रश्न के रूप में स्थापित करना बेहद जरूरी है.
औरतें खुद को समाज के हवाले नही करना चाहतीं,(लब आजाद हैं) चाहे वे किसी भी धर्म की हों. ऐसी सभी परंपराएं जो औरत को इंसान मानने से ही इन्कार करती हों और भेदभाव पर टिकी हों उन्हें औरतें जमींदोज कर डालना चाहती है. वे सवाल कर रही हैं समाज से, व्यवस्था से. सुप्रीम कोर्ट से मिली सफलता यह यकीन दिलाती है कि हमारे-आपके प्रयासों से एक नई दुनिया का एहसास मुमकिन होना अवश्यम्भावी है.
नाइश हसन, रिसर्च स्कॉलर एवं मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ता
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