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काकटेली विचारधारा का स्वरूप हो चुके हैं हम
क्या हम फासिस्टवादी, नाजीवादी और आतंकवादी विचार धाराओं की “काकटेली विचारधारा” का मिला-जुला स्वरूप हो चुके हैं?
क्या हम फासिस्टवादी, नाजीवादी और आतंकवादी विचार धाराओं की “काकटेली विचारधारा” का मिला-जुला स्वरूप हो चुके हैं? क्षद्म राष्ट्रवाद, धर्म की कट्टरता और मानवीय संवेदनाओं के मृत हो जाने का जो स्वरूप सहित सत्ता का जन सरोकारों से कट जाना….और जनता द्वारा प्रतिकार न करते हुए समर्थन देना…..क्या यह सब देखकर कहा जा सकता है कि हमने अपनी ही तबाही का खाका बुन डाला है।
यह एकाएक नहीं हुआ है इसके पीछे सालों तक संगठनात्मक स्तर पर मेहनत की गई है। एक-एक कर आहिस्ता-आहिस्ता तमाम झूंठे किस्से कहानियों को गढ़ा गया…पूर्ववर्ती सरकारों की धर्मनिरपेक्षता के कुछ पैबंदों को हटाया गया और कुरेद-कुरेद कर घावों को फिर हरा-भरा किया गया, बड़े ही शातिराना तरीके से संस्कृति और सभ्यता का खोल चढ़ाया गया और जब सालों की मेहनत के बाद यह काकटेल तैयार हुआ तो इसमें क्षद्म राष्ट्रवाद का तड़का लगाया गया।
तड़का लगाने के बाद अब बारी थी आवाम के दिलो-दिमाग में उसे भरने की क्योंकि हिटलर ने कहा था कि लोगों के दिमाग पर जिस दिन आप कब्जा कर लेंगे आप लंबे समय तक राज करेंगे। इसके बाद हिटलर द्वारा प्रतिपादित दूसरे सिद्धांत के इस्तेमाल की बारी थी और वह थी कि झूठ को इतनी बार बोलो और इतने ऊंचे सुरों में बोलो कि वह सच लगने लगे। … आखिरकार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से लेकर मीडिया तक को पूरी तरह से आगोश में ले लिया गया।
अब हालात यह हो चले हैं कि इतनी लाशों के बावजूद हमारी संवेदनाएं जाग्रत नहीं होती हैं। जाग्रत होती हैं तो उनको सीधे-सीधे खांचे में बांट दिया जाता है…मसलन महाराष्ट्र और दिल्ली के अस्पतालों में आक्सीजन न होने पर मरीजों के मर जाने पर एक वर्ग प्रतिक्रिया करता है जबकि यही घटना गुजरात, उत्तर प्रदेश…में होती है तो प्रतिक्रिया नहीं करता है।
मतलब संवेदनाओं और प्रतिक्रियाओं का सेलेक्टिव हो जाना नाजीवाद व फासीवाद का ही एक रूप है और श्मशानों पर जलती बेतहाशा लाशों, रोते लोगों, दवाओं व आक्सीजन की कालाबाजारी व मुनाफाखोरी को देखकर भी आंखों में नमी का न आना ….यह सब आतंकवादी विचारधारा को धारण कर लेना ही है। दरअसल, हमारे भीतर से एक इंसान और उसकी इंसानियत की तासीर को ही मार दिया गया है।
जब हम संवेदनाओं को मार देते हैं तो 20 हजार करोड़ के नये संसद भवन, 1700 करोड़ के इंडिया-वन वायुयान की खरीद पर खामोश रहते हैं और ये भी नहीं पूछते कि लाखों मौतें हो चुकी हैं और लोग मौत के मुहाने पर हैं…. वैक्सीन फ्री लगवाई जाएं। महामारी और बेरोजगारी के इस दौर में भी मास्क और सेनेटाइजर पर भी सत्ता 18% जीएसटी वसूल लेती है… लेकिन हमारा क्षद्म राष्ट्रवाद खामोश रहता है।
फासीवाद या फ़ासिस्टवाद (फ़ासिज़्म) इटली में बेनितो मुसोलिनी द्वारा संगठित “फ़ासिओ डि कंबैटिमेंटो” का राजनीतिक आंदोलन था जो मार्च, 1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं सदी के क्रांतिकारियों- “फासेज़” से ग्रहण किए गए। मूल रूप में यह आंदोलन समाजवाद या साम्यवाद के विरुद्ध नहीं, अपितु उदारतावाद के विरुद्ध था। …
हमने अपने भीतर से उदारवादी मानवीय चेहरे को उतार फेंका है।नाज़ीवाद, जर्मन तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर की विचार धारा थी। यह विचारधारा सरकार और आम जन के बीच एक नये से रिश्ते के पक्ष में थी। कट्टर जर्मन राष्ट्रवाद, देशप्रेम, विदेशी विरोधी, आर्य और जर्मन हित इस विचार धारा के मूल अंग है।
नाज़ी यहुदियों से सख़्त नफ़रत करते थें और यूरोप और जर्मनी में हर बुराई के लिये उन्हें ही दोषी मानते थे। …और आतंकवाद एक प्रकार की हिंसात्मक गतिविधि होती है। अगर कोई व्यक्ति या कोई संगठन अपने आर्थिक, राजनीतिक एवं विचारात्मक लक्ष्यों की प्रतिपूर्ति के लिए देश या देश के नागरिकों की सुरक्षा को निशाना बनाए, तो उसे आतंकवाद कहते हैं।
मेरी नज़र में आतंकवाद या आतंकियों की भी दो शाखाएं हैं। एक है हाथों में ग्रेनेड व एके-47 या RDX लेकर सरे राह लोगों के चीथड़े उड़ा देना और दूसरा आतंकवाद है लोग मरते रहें और उनकी लाशों को देखकर भी खामोशी ओढ़ कर चुप ही नहीं बैठ जाना बल्कि सवाल उठाने वालों को ही कठघरे में खड़ा कर देना….यह कोई आतंकवादी ही कर सकता है।
फिलहाल हम सब जिस रास्ते पर अब आ चुके हैं वहां इस तरह के लेखों व टिप्पणियों का कोई खास महत्व नहीं रह गया है। … लेकिन हम जाने-अनजाने खुद को, पीढ़ियों को और इस मुल्क को तबाही पर ढकेल चुके हैं। इसकी कीमत समर्थक भी उठाएंगे, विरोधी भी और तटस्थ भी….वक्त की कोख में बहुत कुछ है…

पत्रकार पवन कुमार सिंह की वॉल से
(National Herald, Dainik Jagran, Rashtriya Sahara,
Hindustan में बतौर संवाददाता कार्य कर चुके एवं Outlook के
कॉपी एडीटर रहे श्री सिंह एक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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