धार्मिक

श्रीहनुमानजी ने राक्षसी लंकिनी से क्या सीख लेकर लंका में प्रवेश किया था

श्रीहनुमान जी लंका नगरी में प्रवेश करते, इससे पहले लंकिनी श्रीहनुमान जी को कहती हैं कि आप निश्चित ही लंका नगरी में प्रवेश करें, लेकिन साथ में विनती है कि आप, हृदय में प्रभु श्रीराम जी के स्मरण के साथ निरंतर जुड़े रहें। हमने विगत अंक में भी कहा था, कि लंकिनी ने श्रीहनुमान जी को, जो यह संदेश दिया, कि आप प्रत्येक क्षण सुमिरण से सरोबार रहें, और प्रभु के सब काज करिए। वास्तव में लंकिनी द्वारा प्रभु ही समस्त जन मानस को इस सत्य से अवगत कराना चाहते हैं, कि संसार भी एक लंका नगरी है।

जहां जीव अपने समस्त जीवन का निर्वाह करता है। अपने बल, रुचि व संस्कारों से प्रेरित होकर कर्म करता है। उन कर्मों का परिणाम सुखद भी हो सकता है, और दुखद भी। जिनके मतानुसार व रुचि अनुसार परिणाम निकलते हैं, वे फूले नहीं समाते। और जिनको आशा के विपरीत फल मिलता है, वे सदमे में चले जाते हैं। लेकिन इन सबसे परे, कर्मों का निर्वाह करते हुए महापुरुष भी प्रतीत होते हैं, जिनका परिणाम न तो मन के सुखों से प्रेरित होते हैं, और न ही दुखों से। उन्हें तो बस एक क्रिया का निर्वाह करना होता है, जो स्वयं के हित व सुखों से जुड़ा न होकर, केवल प्रभु के आदेश व इच्छा से बँधा होता है। और वह कर्म, वास्तव में कर्म न होकर, पूजा की श्रेणी में आता है।

और श्रीहनुमान जी जैसे महापुरुष भला बिना पूजा के जीवन का निर्वाह कर ही कैसे सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण श्रीगीता में यही सूत्र अर्जुन को दे रहे हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, कि हे अर्जुन तुम यह न सोचो कि इस युद्ध का परिणाम क्या होगा। कारण कि युद्ध का परिणाम तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुम तो मात्र कर्म करने के लिए ही स्वतंत्र हो। कर्म के साथ जुड़े फल के साथ नहीं। इस लिए तुम तो सिर्फ कर्म करने में तत्परता दिखाओ, उसके परिणाम के साथ नहीं बंधो। और कर्म भी कोई ऐसे नहीं करना। अपितु युद्ध के साथ-साथ तुम्हें निरंतर सुमिरण भी करते रहना है। क्योंकि इस प्रकार मेरे में अर्पण किए हुए मन बुद्धि से युत्तफ़ हुआ साधक, निःसंदेह मेरे को ही प्राप्त होता है।

मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम।।’

लंकिनी भी कहती है कि हे तात! अपने हृदय में श्रीराम जी का स्मरण कभी भी नहीं छोड़ना। अर्थात संसार में जीव को कर्म तो करना ही पड़ेगा। लेकिन अगर वह इन कर्मों के सुख दुख रूपी परिणामों से बँधने लगे, तो पीड़ा की चिर जकड़न में जकड़े रहना निश्चित है। इसलिए जीव को अपने जीवन में यह निश्चित करना ही पड़ेगा, कि वह संसार के कर्मों को इस प्रकार से करे, कि वह उन कर्मों को अपना न जान कर, प्रभु का आदेश व इच्छा मान कर चले। यह मानने के पश्चात, अगर कहीं जीवन में सफलता का सुख मिले, तो आप इस सत्यता से अवगत होंगे, कि यह सफलता तो प्रभु के प्रभाव से मिली है। कारण कि प्रभु ऐसा ही चाहते थे। तभी उन्होंने मुझसे ऐसे ऐसे क्रिया कलाप करवाये, कि परिणाम अनुकूल निकले। यही सिद्धांत उस समय भी क्रियान्वत रहेगा, जब आप को असफलता का सवाद चखना पड़ेगा।

तब भी आप भली भाँति स्वयं को समझा पायेंगे, कि प्रभु यही तो चाहते थे। कि हमें इस कार्य में असफलता का ही अनुभव हो। निश्चित ही यह प्रतिकूल-सा प्रतीत होने वाला परिणाम प्रभु का ही तो प्रसाद है। तो गम किस बात का। सज्जनों अब इसका अर्थ यह नहीं हो जाता कि श्रीहनुमान जी को भी, अगर माता सीता का पता नहीं मिलता। तो वे इसे प्रभु की इच्छा मान वापस लौट जाते। वे इसे प्रभु की इच्छा कतई न मानते। कारण कि प्रभु ने तो स्वयं अपने श्रीमुख से श्रीसीता जी से मिलने के सूत्र दिए थे। ऐसे में मिली असफलता तो साधक को चौकन्ना कर देती है कि प्रभु ने तो अपनी इच्छा पहले से ही बता दी थी। और अगर अब वैसा परिणाम नहीं निकला, तो निश्चित ही इसमें मेरे प्रयासों की ही कमी थी।

मैंने ही कर्म करने में अपने पूर्ण बल व निष्ठा को किनारे करे रखा। अवश्य ही मैं, प्रभु की याद से विमुख हो, मन के पीछे लग गया होऊँगा। वरना असफलता का फ़न भला मुझे क्यों डसता। ऐसी अवस्था में साधक का आत्म चिंतन आरम्भ होता है कि कुछ भी हो, मुझे सेवा कार्य में निरंतर प्रभु का सुमिरण रखना ही होगा। तभी मेरा प्रत्येक कर्म पूजा होगा। क्योंकि यही तो मेरे प्रभु का उद्देश्य है। और इसमें कोई संदेह नहीं कि इस धरा पर प्रत्येक जीव को अपनी हर एक श्वाँस को प्रभु की याद से जोड़ कर ही व्यतीत करना पड़ेगा। और श्रीहनुमान जी ने लंकिनी की इस सोच को गांठ बाँध लिया और लंका नगरी में प्रवेश करते हैं। गोस्वामी जी कहते हैं, कि लंका के वैभव का वर्णन करना शब्दों के वश की बात नहीं है।

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