
एक अजीब सी दौड़ है, ये जिन्दगी
हरिवंश राय बच्चन जी की एक सुंदर कविताःः
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ख्वाहिश नहीं मुझे
मशहूर होने की,”
_आप मुझे पहचानते हो_
_बस इतना ही काफी है।_
_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा जाना मुझे_
_जिसकी जितनी जरूरत थी_
_उसने उतना ही पहचाना मुझे!_
_जिन्दगी का फलसफा भी_
_कितना अजीब है_
_शामें कटती नहीं और_
_साल गुजरते चले जा रहे हैं!_
_एक अजीब सी_
_दौड़ है ये जिन्दगी_
_जीत जाओ तो कई_
_अपने पीछे छूट जाते हैं और_
_हार जाओ तो_
_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं!_
_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अक्सर_
_मुझे अपनी_
_औकात अच्छी लगती है।_
_मैंने समंदर से-
_सीखा है जीने का तरीका_
_चुपचाप से बहना और_
_अपनी मौज में रहना।_
_ऐसा नहीं कि मुझमें_
_कोई ऐब नहीं है_
_पर सच कहता हूँ_
_मुझमें कोई फरेब नहीं है।_
_जल जाते हैं मेरे अंदाज से_
_मेरे दुश्मन_
_एक मुद्दत से मैंने-
_न तो मोहब्बत बदली_
_और न ही दोस्त बदले हैं।_
_एक घड़ी खरीदकर_
_हाथ में क्या बाँध ली_
_वक्त पीछे ही_
_पड़ गया मेरे!_
_सोचा था घर बनाकर_
_बैठूँगा सुकून से_
_पर घर की जरूरतों ने_
_मुसाफिर बना डाला मुझे!_
_सुकून की बात मत कर_
_बचपन वाला इतवार अब नहीं आता!_
_जीवन की भागदौड़ में_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है_
_हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
_आम हो जाती है!_
_एक सबेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम_
_और आज कई बार बिना मुस्कुराए_
_ही शाम हो जाती है!_
_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते-निभाते_
_खुद को खो दिया हमने_
_अपनों को पाते-पाते।_
_लोग कहते हैं_
_हम मुस्कुराते बहुत हैं_
_और हम थक गए_
_दर्द छुपाते-छुपाते!_
_खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ_
_लापरवाह हूँ ख़ुद के लिए_
_मगर सबकी परवाह करता हूँ।_
_मालूम है_
_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_
_कुछ अनमोल लोगों से_
_रिश्ते रखता हूँ।_🙏🙏🙏