वन्दे मातरम

धार्मिक क्रांति के सूत्रधार पामहैबा, पार्ट-1

गतांक से आगे पढ़िए..…..
कुछ इतिहासकारों का मत है कि शान्तिदास अधिकारी नामक वैष्णव संत, जो वैष्णव धर्म के प्रचार हेतु उस समय मणिपुर आए हुए थे, ने पामहैबा के राजवंशी होने के तथ्य की पुष्टि की थी। इन्होंने अपने शासन-काल में कई बार म्यांमार पर आक्रमण किए और विजय प्राप्त की।……………….

अब इससे आगे पढ़िए...

चैथरोल कुमबावा नामक हस्तलिखित इतिहास-ग्रंथ में महाराजा गरीबनवाज के सन 1727 ई० में
उपनयन-संस्कार का उल्लेख और गुरु गोपालदास नामक किसी वैष्णव साधु के द्वारा उन्हें दीक्षा देने का वर्णन है।

गुरु गोपालदास किस मत के अनुयायी थे। इस संबंध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है।
भाग्यचन्द्र-चरित नामक ग्रंथ में रामदास वैरागी द्वारा उन्हें दीक्षा देने का उल्लेख है। गरीबनवाज के द्वारा रामानन्दी संप्रदाय से पूर्व गौड़ीय वैष्णव-संप्रदाय में दीक्षा लेने की बात भी कुछ इतिहासकार कहते हैं।

सत्य जो भी हो, तथ्य यह है कि गरीबनवाज ने गौड़ीय वैष्णव धर्म को अपने शासन काल में मणिपुर का राज्य धर्म घोषित किया था। महाराजा गरीबनवाज ने सन 1722 ई० में भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर बनवाया था।

सन 1716 ई० में इनके द्वारा कालिका मंदिर बनवाने के प्रमाण भी उपलब्ध हैं। सन 1725 ई० में इन्होंने निंथैम पुखरी राजा का पुष्करणी का निर्माण करवाया और उसके किनारे मंदिर बनवाकर वृंदावन चंद्र और कालिका की मूर्तियां की स्थापना करवाई।

सन 1726 ई० में इन्होंने घरों में सूअर और मुर्गी पालने कर निषेधाज्ञा जारी की थी। उसी समय से वैष्णव भोजन-संबंधी नियमों के कड़ाई से पालन करने के आदेश दिए गए। सन 1732 ई० में किरोइ नामक वंश के लोगों द्वारा गोमांस खाने पर उन्हें सार्वजनिक रूप से पीटा गया।

जो लोग सूअर पालते थे, उन्हें अर्थदंड के साथ ही गांवों से निर्वासित कर दिया गया। चैथरोल कुमबाबा मणिपुर का हस्तलिखित इतिहास के अनुसार सन 1724 ई० में राजा ने अपने पूर्वजों की
अस्थियों को भूमि में से खोदकर निकलवाया और निङथी नदी के किनारे ले जाकर उनका दाह संस्कार करवाया।

उसी समय से मणिपुर में दाह संस्कार तथा अस्थि-संचय की प्रथा आरंभ हुई। मणिपुर में सती-
प्रथा का कभी प्रचलन नहीं था, किंतु सन 1725 ई० में राजा के पुत्र सनाहल मुरारी के मरने पर उनकी दो पत्नियों के सती होने का उल्लेख मिलता है।

उनकी पुत्री प्रथम मणिपुरी महिला थी जो वृंदावन यात्रा पर गई थी। उसके बाद ही स्त्री-पुरुषों के वृंदावन जाने की परंपरा चल पड़ी, जो आज भी कायम है। आज भी राधाकुंड वृंदावन में सैकड़ों मणिपुरी वृद्घ-वृद्घाएं रहती हैं। वे वृद्घावस्था में वृंदावन आ जाते हैं क्योंकि ऐसी मान्यता है कि वहां मरने पर मोक्ष मिलेगा।

सन 1716 ई० में सिलहट से किसी शान्तिदास अधिकारी के अपने दो शिष्यों भगवानदास एवं नरसिंहदास के साथ मणिपुर आने का वर्णन है। इनका महाराजा द्वारा भव्य स्वागत-सम्मान किया गया।

गौसाई शान्तिदास ने राजा तथा सामंतों को रामानन्दी संप्रदाय में दीक्षित किया तथा स्थानीय सनामही धर्म की तुलना में रामानन्दी संप्रदाय की श्रेष्ठïता सिद्घ की। महाराजा के पुत्र श्यामशाह तथा सेनापति हाऔबम अकोङ ने भी उनका समर्थन किया।

कार्तिक पूर्णिमा के दिन सन्ï 1737 ई० में लिलौंग नामक स्थान पर राजा ने 100 व्यक्तियों के साथ यज्ञोपवीत धारण किया। इसके बाद के वर्षों में अन्य लोगों को भी यज्ञोपवित तथा दीक्षा दी गई और उनको मांस-मदिरा न खाने की शपथ दिलाई गई।

इसी समय इंफाल नदी के किनारे रामजी प्रभु का मंदिर बनवाया गया तथा उसमें राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, और शत्रुघ्र की मूर्तियो की प्रतिष्ठा की गई। यह मंदिर आज भी विद्यमान है। सन 1729 ई० में महाबली हनुमान ठाकुर के मंदिर का निर्माण किया गया।

इस प्रकार शान्तिदास महंत की प्रेरणा से गरीबनवाज ने मणिपुर में धार्मिक क्रांति की नींव डाली। कहा जाता है कि मणिपुर के प्राचीन धर्म के देवताओं को गाड़ दिया गया। इतना ही नहीं, मणिपुर भाषा में कीर्तन या प्रार्थना करना निषिद्घ कर दिया गया तथा मैतै मयेक या मणिपुर लिपि का प्रयोग बंद कर दिया गया।

उसके स्थान पर बांग्ला लिपि का प्रयोग आरंभ हुआ। कहते हैं कि राजा से मिलकर शान्तिदास ने 120 प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों को जला डाला, जिनमें केवल छह ग्रंथ बचे। जो अग्नि में नहीं जल सके।

इस प्रकार कहा जाता है कि गरीबनवाज ने मणिपुर धार्मिक ग्रंथ, जिन्हें पुया कहा जाता है, को नष्ट करवा दिया। किंतु इस बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।

संभवत: संसार में शायद ही कोई ऐसा स्थान हो जहां पर्व-त्यौहारों पर या संस्कारों के अवसर पर अपनी भाषा के लोक-गीत न गाए जाते हों, किंतु इस निषेधाज्ञा के उपरांत किसी भी धार्मिक कृत्य, संस्कार या पर्व-त्यौहार पर केवल बांग्ला, संस्कृत मैथिली एवं ब्रज भाषा के पद गाए जाने लगे।

फलत: लोकगीतों एवं स्थानीय भाषा के गीतों की परंपरा एकदम समाप्त हो गई। राजा की घोषण के अनुसार जो व्यक्ति इसका पालन नहीं करेगा। उसे पाप लगेगा। मणिपुर भाषा में भजन या गीत गाने वाला यदि दिन में मरेगा तो कौआ और रात में मरेगा तो उल्लू के रूप में दूसरा जन्म लेगा।

पेना या एकतारा पर गानेवाला व्यक्ति नरक में जाएगा। इस राजाज्ञा के फलस्वरूप मणिपुर लोकगीतों के गान की प्रथा समाप्त हो गई, वह शताब्दियों के बाद वर्तमान युग में पुनर्जीवित हुई।………………आगे पढ़िए भाग—2

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