साइबर संवाद

कौन सुधारना चाहता है पुलिस को?

इस महीने की सिर्फ चार घटनाएं देश की पुलिस के आजादी के बाद से “प्रशिक्षित और प्रोफेशनल” चरित्र का बखान करने के लिए काफी हैं। इनमें से तीन घटनाएं कानपुर की हैं। विकास दुबे द्वारा आठ पुलिसकर्मियों की हत्या, विकास दुबे का पुलिस मुठभेड़ में मारा जाना, कानपुर में एक युवक का अपहरण होने के बाद पुलिस के निर्देश पर ही तीस लाख रुपए की फिरौती देने के बाद मुकर जाना और फिर उसकी हत्या हो जाना तथा गाजियाबाद में पत्रकार की सरे आम हत्या होना।

इन सारी घटनाओं के लिए मैं किसी को भी जिम्मेदार ठहराना नहीं चाहता, क्योंकि इस तरह की अनेक घटनाएं देश के हर इलाके में पहले भी होती रही हैं, आज भी बदस्तूर जारी हैं। जनता इन्हें जानती और भोगती है लेकिन उच्च पदों पर आसीन आईपीएस अफसरों के जनता को दुलराने और भविष्य में ऐसा नहीं होगा, कोई बख्शा नहीं जाएगा जैसे अखबारों में छपे बयान और बाइट्स लोगों को लगातार भ्रमित भी करते रहते हैं।

असल में पुलिस में जिसे फोर्स कहा जाता है,वह फोर्स मदमस्त हाथी की तरह से बुरी तरह से बेकाबू हो चुका है और उसे नियंत्रित करने वाले महावत रूपी आईपीएस अफसर सिर्फ अपनी मालदार पोस्टिंग के फेर में ही पड़े रहते हैं, क्योंकि वे खुद नहीं जानते हैं कि इस हाथी का उसे करना क्या है? उन्हें तो बस नौकरी के दौरान लगतार हाथी बदलते ही रहना है।

अब समय आ गया है यह तय करने का कि क्या पुलिस में सुपरवाइजर की कोई भूमिका होती है? अगर पुलिस में हाथियों को हांकने वालों की कोई ज़िम्मेदारी होती तो कानपुर के सारे बड़े पुलिस अफसर कभी के बर्खास्त कर दिए गए होते। यह बात दूसरी है कि पुलिस की अक्षमता और कमीनगी की पोल खुल जाने के बाद एएसपी और नीचे के कुछ लोग जरूर निलंबित किए गए हैं लेकिन एसएसपी, डीआईजी और आईजी जैसे अफसरों पर सरकार की गाज़ न गिरना बताता है कि इन जैसे अफसरों से पूरा महकमा भरा पड़ा है, किस-किसको बदलेगें?

उत्तर प्रदेश में डीजीपी रहे ओ0पी0 सिंह ने एक बार मुझसे कहा था कि 80 प्रतिशत से अधिक बड़े पुलिस अफसर एक प्रतिशत भी काम नहीं करते और मेरा वश चलेगा तो उनमें से दस प्रतिशत को तो मैं बर्खास्त करा ही दूंगा। हालांकि जो भी मजबूरी रही हो, ओे0पी0 सिंह अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सके। लेकिन उनके जैसे अनेक अफसर समय-समय पर अपने कैडर को लेकर निराशा व्यक्त करते देखे जाते हैं।

अफसर लोग साफ साफ कहते हैं कि पुलिस में नीचे से लेकर ऊपर तक जो नई पौध आयी है, एक तो वह विधिवत प्रशिक्षित नहीं है और दूसरे उनके भीतर सिर्फ कमाई करने का ही जज़्बा है और इसके लिए वे हर तिकड़म करने को तैयार हैं।

कानपुर में अपहरण के बाद हत्या के मामले में महीने भर तक जिस तरह पुलिस ने लापरवाही बरती और उनके अफसरों ने जिस तरह से घटनाक्रम और पुलिस की तफ्तीश का पर्यवेक्षण नहीं किया, उससे इतना बड़ा नुकसान हुआ, एक व्यक्ति संजीत यादव को अपनी जान गंवानी पड़ी।

आश्चर्य की बात यह है कि इस साइबर युग में जब कोई मोबाइल इस्तेमाल करता है तो उसकी लोकेशन पता लगा लेना पुलिस के लिए बहुत ही आसान काम है लेकिन संजीत यादव के अपहरण के बाद अपहरणकर्ताओं ने 17 बार मोबाइल का इस्तेमाल किया और विकास दुबे ने भी भागने के बाद कई बार मोबाइल का इस्तेमाल किया, लेकिन पुलिस के हाथ खाली के खाली ही रहे।

विकास दुबे एनकाउंटर ने पूरी दुनिया में तो नहीं, लेकिन मीडिया और राजनैतिक दलों के बीच एक ऐसा झंझावात पैदा कर दिया है जिससे ऐसा लगता है कि मानवता के इतिहास में कोई निर्दोष पुलिस के हाथों पहली बार मारा गया है। विकास के मारे जाने के ठीक एक दिन पहले उसका अवयस्क साथी भी ठीक इसी ढंग से मारा गया था।

उसके लिए न तो उस समय और न ही आज तक कोई खास शोर मचाया गया है। सारा शोर विकास के मारे जाने को लेकर है क्योंकि वह धनाढ्य था और राजनीतिक रसूख वाला था जिससे टीआरपी बढ़ती है, जो प्रतिस्पर्धा के इस युग में आज की सबसे बड़ी दरकार है। कई साल पहले जब दिल्ली में एक लड़की के साथ बस में वीभत्स तरीके से दुराचार करने के बाद उसे फेंक दिया गया था तो भी मीडिया ने पूरे देश में भूचाल ला दिया था।

हालांकि इस तरह की वह पहली घटना नहीं थी और न ही बाद में इस तरह की घटनाओं में कमी आई है लेकिन तूफान ऐसा मचा था कि यह पहली और आखिरी घटना थी। हाहाकार मचाने वाले समूह के एक जांबाज़ संपादक से मैंने यह पूछा था कि अगर जौनपुर, उरई, अतर्रा, सागर, दिल्ली या सिरसा में इस तरह की घटना की जानकारी मिलेगी तो आप किस खबर को प्रमुखता के साथ प्रथम पृष्ठ पर छापेगें?

तो उनका जवाब था कि दिल्ली की घटना को। अगर सागर में किसी मंत्री की बेटी अगवा कर ली जाती है और उसी दिन दिल्ली में एक महरिन की लड़की भी अगवा की जाती है तो फिर किसको प्रथम पृष्ठ पर स्थान देगें? उनका जवाब था सागर की घटना को। स्पष्ट है कि मीडिया सिर्फ ग्लैमर तलाशता है।

पुलिस के हाथों विकास की मौत के बाद यह भी चर्चा उठी थी कि ऐसे हालात में पुलिस का मनोबल बढ़ाने की जरूरत है। किस लिए? ताकि वे अपनी मनमानी कर सकें? उनका मनोबल गिराता कौन है? उन्हीं के ही अफसर, जो अपनी मौज के लिए अपने अधीनस्थों से गलत-सही काम कराते हैं और फिर उनको वेदी पर चढ़ा देते हैं। अगर जिले की पुलिस का मनोबल गिरता है तो क्यों नहीं उस जनपद के कप्तान को ही बर्खास्त कर दिया जाए? कप्तान की उपयोगिता ही क्या है? इतने डीआईजी और आईजी किसलिए बनाए गए हैं? सिर्फ वसूली के लिए?

पुलिस अफसरों की कमाई को कौन नहीं जानता? कानपुर में आठ पुलिस वालों के मारे जाने के बाद कितने अफसरों पर गाज़ गिरी है? एक भी नहीं। और उसी कानपुर की पुलिस एक अपहृत युवक संजीत यादव को ढूंढ़ पाने की जगह तीस लाख रुपयों से भरा सूटकेस पुल से फेंकवाती है। अपहृत युवक जिंदा वापस नहीं मिला जबकि अपहरणकर्ता मोबाइल का बेधड़क इस्तेमाल करते रहे। पुलिस की पोल खुल जाने पर कानपुर के एसएसपी किसी असंलिप्त व्यक्ति की तरह जवाब दे रहे थे कि मामले की जांच की जाएगी।

ऊपर के सारे अधिकारी मौन हैं।

क्यों? क्योंकि ये सब खाकी वर्दीधारी जरूर हैं लेकिन भीतर से गैर-पेशेवर हैं। उनकी नीयत सिर्फ पैसे कमाने की ही है। पहले कहा जाता था कि सिस्टम नीचे वालों को भ्रष्ट बना देता है। ऊपर से जब पैसे की मांग आती है तो नीचे वालों को लूटना पड़ता है। इसमें सच्चाई भी है, लेकिन इस समय पुलिस मुखिया के पद पर बैठे हितेश अवस्थी  तो पाई-पाई के ईमानदार हैं।

फिर भी जिलों में लोग वसूली में लगे हैं और मनोबल बढ़ाए जाने की मांग कर रहे हैं! क्या ईमानदार मुखिया नाकारा होता है? उसे मुखिया बनाया जाना क्या सरकार की ब्रांडिंग भर होती है? यानी उसकी कुछ नहीं चलती? वरना क्या मजबूरी थी कि आठ पुलिस वालों के मारे जाने और अपहरणकर्ताओं तक सूटकेस पंहुचाने वाली कानपुर पुलिस के एक भी आला अफसरों पर डीजीपी का कहर नहीं बरपा?

पहला सवाल यह है कि विकास को किसने बनाया? राजनीतिज्ञों का संरक्षण तो होता ही है लेकिन बनाती तो पुलिस ही है। बीहड़ों में जो गैंग घूमते रहे हैं, वे भी तो पुलिस की ही देन हैं। देश भर में इस तरह के सैकड़ों विकास अभी भी मौजूद हैं। कौन नहीं जानता कि पुलिस में पोस्टिंग की सारी लड़ाई लूट के माल के लिए ही होती है। मैंने अपनी ज़िन्दगी में मेहनत करके पुलिस को कभी केस वर्कआउट करते नहीं देखा। जो अपने आप झोली में गिर गया, उसी को गुड वर्क बना लिया। असली मुठभेड़ हो तो कानपुर जैसा हाल होता है।

कोई यह सवाल नहीं उठा रहा है कि रात में पुलिस दबिश देने क्यों गई थी? क्या मजबूरी थीं? किसने फोन करके विकास को पकड़ने का आदेश दिया था? फिर पूरी तैयारी के साथ पुलिस क्यों नहीं गईं? बुलेट प्रूफ जैकेट क्यों नहीं पहने थे? हाथ में लाइट पिस्टल क्यों नहीं थी? हेलमेट क्यों नहीं लगाए थे? ये चीजें थाने में पड़ी सड़ती रहती हैं लेकिन पुलिस जब दुर्दांत अपराधी की तलाश में जाती है तो हाथ हिलाते हुए जाती है।

यह सोचकर की कोई न कोई पकड़ कर दे देगा और बाद में डील कर लेगें! यही पुलिस की मानसिकता है। अपने से बड़ा मिला तो उसकी जूती पर अपना सिर और अगर लावारिस मिल गया तो पूरे विभाग की जूतियां उसके सिर पर! खतरा तो पुलिस के शब्दकोश में होता ही नहीं है।

मैंने जब क्राइम रिपोर्टिंग शुरू की थी, चार दशक पूर्व तो मुझे दो नई चीजें मालूम हुईं थीं कि पुलिस और पत्रकारिता का चोली-दामन का साथ होता है। यानी मीडिया का काम पुलिस की इज्जत को ढंक के रखना होता है। मुझे बाद में समझ में आया कि पुलिस की कोई इज्जत नहीं होती, सिर्फ इकबाल होता है और मीडिया का उससे संबंध चोली दामन का नहीं बल्कि गटर और मेनहोल के ढक्कन जैसा होता है। ढक्कन हटा नहीं कि गटर की सड़ांध बाहर आ जाएगी।

इसी सड़ांध ने गाजियाबाद के उस पत्रकार की सरे आम जान ले ली। लोग पत्रकारों से भिड़ने से इसलिए बचते हैं कि वे अफसरों के संपर्क में रहते हैं और बात ऊपर तक जा सकती है। लेकिन जो लोग समाज में तरह-तरह के जरायम करते रहते हैं, उनके असली मां-बाप तो पुलिस वाले ही होते हैं, वे ही पुलिस के मुखबिर भी होते हैं। इसलिए पुलिस की पहली प्राथमिकता तो अपने मुखबिरों की सुरक्षा ही होती है। इसी वजह से पुलिस पत्रकार को नहीं बचा पाई।

जो लोग चैनलों पर पुलिस के खत्म हो रहे इकबाल की बात करते हैं, वे यह नहीं बता पायेगें की यह इकबाल बुलंद होता कैसे है? असल में जब निर्दोष लोगों को पुलिस सरे आम चौराहे पर पीटती है, उनके बाल मुंडवाती है, थर्ड डिग्री करती है, तभी जो कुछ मोहल्ले में बुलंद होता है, वही पुलिस का इकबाल होता है।

पुलिस का यह रवैया देखकर बदमाश पुलिस से दोस्ती के बहाने ढूंढ़ते हैं, उनका बेगार करते हैं और रेट बढ़ाते हैं, वही इकबाल होता है। पुलिस के पास कोई अलादीन का चिराग नहीं होता जिससे वह अपराधियों को ढूंढ़ लाए। यही जरायम करने वाले उसके सेवक ही उनकी चिलम फूंकते रहते हैं।

मेरे एक मित्र जो एक जिले में एसएसपी थे, वे हर रोज एक बदमाश का पैर तोड़वाते रहते थे। जब कोई विधायक फोन करता कि उसके एक आदमी को पुलिस उठा ले गई है तो एसएसपी तुरंत थाने में वायरलेस करते कि विधायक जी के पहुंचने से पहले टांग टूट जानी चाहिए। अपने कार्यकाल में उन्होंने लगभग दो सौ लोगों के पैर तोड़े थे।

वह कहते थे कि यह मेरी मजबूरी है। किसी दफा में इन्हें जेल भेज दिया जाएगा तो दो-तीन महीने में जमानत कराके वापस आ जाएंगे। ऐसे तो पैर ठीक होने में साल-छह महीने लग जाएंगे और पुलिस के डर से जमानत भी नहीं कराएगें, तब तक मेरा कार्यकाल शांति से पूरा हो जाएगा। पुलिस का इकबाल भी बुलंद हो जाएगा।

मैंने एक डीजीपी से एक इंस्पेक्टर के ट्रांसफर की सिफारिश की। डीजीपी ने उसे नियमानुसार ड्यूटी करने का आदेश दिया। बाद में उसी इंस्पेक्टर ने एक विधायक को पैसे देकर अपना ट्रांसफर करवा लिया। अब वह अपने विधायक का चेला हो गया। उन्हीं डीजीपी ने एक दिन मुझसे अपनी फोर्स की शिकायत करते हुए कहा कि ये लोग अपने अफसरों की नहीं सुनते बल्कि विधायकों की ज्यादा सुनते हैं, आखिर क्यों?

मैंने कहा कि आप उनके है कौन? आप उनकी परेशानियों को सुनने की जगह रौब झाड़ते हैं, नसीहत देते हैं और खुद भी समझौता करते फिरते हैं। क्या आप इस बात का खंडन कर सकने की कूवत रखते हैं कि आपके अधीनस्थ फोर्स से पैसे नहीं लेते? डीजीपी कार्यालय तक में खुले आम पैसे लिए जाते हैं कि नहीं? उन्होंने माना कि यही सच्चाई है।

अगर कानपुर की घटना को नमूने के रूप में लिया जाए तो क्या सिर्फ वह थानेदार ही ज़िम्मेदार था जिसने विकास को दबिश की सूचना दे दी थी? क्या आमतौर पर ऐसा होता नहीं है? क्या पुलिस वाले नहीं जानते थे कि कहीं से भी मुखबिरी हो सकती है? क्या वे प्रोफेशनली तैयार होकर गए थे? नहीं, तो फिर कानपुर के सारे अफसर इस घटना के लिए ज़िम्मेदार नहीं माने जायेगें?

विकास दुबे से किसी को भी सहानुभूति नहीं है। उसकी वैधानिक या अवैधानिक मौत से भी किसी को फर्क नहीं पड़ता। आलोचक कहते हैं कि इससे पुलिस का मन बढ़ जाएगा और पैसे लेकर हत्याएं करने लगेगी। मैंने कहा कि क्या अभी नहीं होती? उन्होंने कहा कि जंगल राज हो जाएगा। मैंने पूछा कि क्या अभी नहीं है? क्या निर्दोष लोग नहीं मारे जा रहे हैं, किसकी सुनी जा रही है? अगर आप अफसर नहीं हैं, जनप्रतिनिधि नहीं है या पत्रकार नहीं हैं तो कौन सिपाही या थानेदार आप की तरफ मुंह उठाकर देखेगा?

वैसे इन तीनों श्रेणी के लोगों की भी आमतौर पर नहीं सुनी जाती है। हां, दलाल हों तो सुने जाने की गारंटी है। मैंने बताया कि मैं तो कई डीजीपी को जानता हूं लेकिन फिर भी किसी की मदद क्यों नहीं कर पाता क्योंकि डीजीपी की ही कोई रुचि नहीं होती कि किसी की मदद करने की तो दरोगा ही क्यों रुचि ले? इन बड़े अफसरों ने ही अपने नीचे के अफसरों को अपना चाकर और जनता का दुश्मन बना रखा है।

पुलिस में लोग कहते हैं कि पुलिस में भीड बढ़ने के कारण नीचे का स्टाफ अप्रशिक्षित रह गया है। बहुत से लोग पैसे देकर नौकरी में आए तो वे कमाने की जल्दी में दिखते हैं। ऐसे लोगों से में पूछता हूं कि उस एएसपी आईपीएस के प्रशिक्षण के बारे में क्या कहेंगे जो कानपुर में बताती है कि सूटकेस में तीस लाख रुपए नहीं थे, कुछ पुराने कपड़े थे।

क्या कोई अपने बेटे को बचाने के लिए मांगी गई फिरौती देने की जगह कपड़े भेजेगा? ताकि उसकी हत्या कर दी जाए? आईपीएस अफसर बताती हैं कि सूटकेस फेंकने के बाद पुलिस सिटकेस उठाने वालों को इसलिए नहीं पकड़ पाई क्योंकि वह स्थान डेढ़ किलोमीटर दूर था। तो यही थी पुलिस की रणनीति? उस अफसर को पुल से नीचे जाने का रास्ता ही नहीं दिखता। असल में इन अफसरों की दिक्कत यह है कि उन्हें नीचे से जो पढ़ा दिया जाता है, उसके आगे उनका दिमाग ही काम नहीं करता है। फलतः गलतियां होंगी ही।

यूपी के पूर्व डीजी सूर्य कुमार शुक्ला कहते हैं कि ऐसे समय में पुलिस का मनोबल बढ़ाए जाने की कोशिश की जानी चाहिए क्योंकि आठ पुलिस वाले मारे गए हैं। तब तो जेल में बंद थानेदार को भी रिहा कर देना चाहिए? ऐसे पुलिसवालों की तलाश नहीं की जानी चाहिए जो अपराधियों के मुखबिर बन कर जरायम कराते हैं? असल में पूरी नौकरी ऐश करने वाले ये अफसर अपने अधीनस्थों की परेशानियों के समाधान में ज़रा भी रुचि नहीं लेते हैं जिससे ये स्थितियां उत्पन्न हो गई है।

मीडिया भी ज़मीनी हकीकत से वाकिफ नहीं है जिसकी वजह से वह उन चर्चाओं में डूब जाती है कि अगर विकास ज़िंदा होता तो अपराधियों और राजनीतिज्ञों के गठजोड़ का पर्दाफाश हो जाता। इस नापाक गठजोड़ के बारे में कौन नहीं जानता या कौन जानने को इच्छुक है? यह जानने की ज्यादा जरूरत है कि पुलिस अपना काम पेशेवर ढंग से क्यों नहीं कर पा रही है? क्या ईमानदार डीजीपी और मुख्यमंत्री मिलकर बेईमानों का सूपड़ा साफ करने में अक्षम हैं?

यही सही वक्त है, सही और कड़े फैसले लेने का। जिसकी गूंज देर तक दूर दूर तक सुनाई पड़ती रहनी चाहिए वरना इस फोर्स को प्रोफेशनल बनाने के लिए सभी को नया जन्म लेना पड़ेगा। वैसे पूरा घटनाक्रम पुलिस के इर्दगिर्द ही केन्द्रित है लेकिन कुछ पुलिस अधिकारी अपने बचाव में राजनीतिज्ञों को इन स्थितियों के लिए ज़िम्मेदार मानकर सारा ठीकरा उनके सिर फोड़ने की कोशिश करते दिखते हैं लेकिन वह यह नहीं बता पाते कि आखिर वे नेताओं की बात मानने के लिए मजबूत क्यों हो जाते हैं?

अपना निहित स्वार्थ वे छिपा जाते हैं। मुलायम सिंह ने इन अफसरों के ही एक कार्यक्रम में एक बार कहा भी था कि मलाईदार पोस्टिंग के लिए क्यों ये अफसर हमारे तलवे चाटते हैं? मैंने अपनी आंखों से देखा है कि मुख्यमंत्री के निर्देश पर नियुक्तियां होती हैं, चाहे वह कितना ही भ्रष्ट क्यों न हो। डीजीपी गर्व से इस बात को बताते भी हैं।

इस आशय के साथ कि उस जिले में क्राइम बढ़ रहा है तो मैं क्या करूं, वह तो सीएम से जुड़ा है। यानी प्रदेश को सही सलामत चलाने के लिए कोई डीजीपी नहीं बनता है बल्कि प्रभावशाली राजनीतिज्ञों का चाटुकार बनने के लिए! आखिर क्यों? मैंने अपनी आंखों से पुलिस मुखिया को निकृष्ट राजनीतिज्ञों की जी हुजूरी करते देखा है ताकि उनकी नौकरी चलती रहे। किसी एसएसपी या डीजीपी को अपनी कुर्सी छोड़ते नहीं देखा। लेकिन यही लोग सार्वजनिक मंचों पर अपने अधीनस्थों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते देखे जा सकते हैं।

मैंने खुद देखा है तीस चालीस बरस पहले जब पुलिस वाले अपने नए एएसपी को खुश करने के लिए चुपके से उनके ड्रॉर में सिगरेट के पैकेट रख देते थे, चाय नाश्ता मंगा देते थे। आज तो बाकायदा महीना मांगा जाता है। पहले भ्रष्ट सिस्टम में शामिल होने में समय लगता था लेकिन आज एएसपी पहले दिन से ही शुरू हो जाते हैं। जब कुएं में भांग पड़ जाए तो कोई क्या कर सकता है?

विकास के एनकाऊंटर के डिफेंस में दो पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह और ए0के0 जैन मैदान में उतरे हैं लेकिन छह महीने पहले डीजीपी रहे ओपी सिंह खामोश हैं। लेकिन अपनी नौकरी के दौरान उन्होंने कई बार मुझसे पुलिस की कार्यप्रणाली को लेकर चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था कि जिसने रिश्वत देकर नौकरी हासिल की है, वह तो लूट मचाएगा ही।

वह कहते थे कि इतनी बड़ी फोर्स को अंकुश में रखने के लिए लंबे समय के लिए अच्छे नेतृत्व की जरूरत रहेगी। हालांकि ओ0पी0 सिंह के मुख्यमंत्री से निकट के संबंध थे लेकिन उन्होंने इसका लाभ लेकर सेवा विस्तार हासिल करने की कोई कोशिश नहीं की थी जिसका जिक्र मुख्यमंत्री भी कर चुके हैं और जो एक मिसाल बन गई है।

ओ0पी0 सिंह ने मुख्यमंत्री की निकटता का लाभ लेकर डंके कि चोट पर नौकरी की और नई इबारत लिखने की कोशिश की। जाते जाते पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली लागू कर उन्होंने पुलिस विभाग की जय जयकार भी करा दी जिसके लिए पूरा पुलिस विभाग उनके लिए अहसानमंद हो गया है।

एक तरह से उन्होंने इतिहास रचा है लेकिन इसकी सार्थकता तभी है जब पुलिस कमिश्नर के पदों पर कोई ईमानदार बैठे और ओपी सिंह की दी गई मशाल को रिले रेस की तरह आगे बढ़ाए। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि अपनी नौकरी की शुरुवात में ओ0पी0 सिंह ने अपने एक इंस्पेक्टर के खिलाफ खुद एफआईआर लिखवाई थी जिसने उन्हें रिश्वत के रूप में बीस हजार रुपए की रिश्वत एक लिफाफे में भरकर दी थी। बाद में उस इंस्पेक्टर ने पुलिस की नौकरी ही छोड़ दी थी।

DGP Hitesh Awasthi
DGP Hitesh Awasthi

मुख्यमंत्री ने वरीयता के आधार पर हितेश अवस्थी जैसे पाई-पाई के ईमानदार अफसर को डीजीपी बनाकर भी एक मिसाल कायम की है। देखना है कि इन दो ईमानदार शिखर पुरुषों की जोड़ी पुलिस विभाग में कोई बदलाव ला सकने में समर्थ होती है कि नहीं?

या अनुभवहीनता इन्हें धराशाई कर देगी क्योंकि इनका मुकाबला घड़ियालों से नहीं बल्कि खूंखार भेड़ियों से है जिन्हें देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त है कि न दिन में, न रात में, न इंसान, न जानवर, न किसी शस्त्र से इनका विनाश किया जा सकता है। सवाल यह है कि कौन लेगा नरसिंह का अवतार?

सौजन्य से: स्नेह मधुर
वरिष्ठ पत्रकार

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